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अ०१७ / प्र०१
तिलोयपण्णत्ती / ४३५ कि नग्नत्व मोक्ष साधना की आधारशिला है। उसके होने पर ही उत्तरगुणों का विकास संभव है। उसके अभाव में मोक्ष के लिए आवश्यक त्रिगुप्ति, दशधर्म, द्वादशानुप्रेक्षा, तप, ध्यान आदि उत्तरगुणों का विकास नहीं हो सकता। इस तरह २८ गुणों के साथ 'मूल' विशेषण लगाया जाना सवस्त्रमुक्ति का निषेध सूचित करता है।
मुनि के मूलगुणों की किञ्चित् झलक तिलोयपण्णत्ती की निम्न गाथाओं में प्रस्तुत की गई है। कल्की का मन्त्री दिगम्बर मुनि का स्वरूप बतलाते हुए कहता
सचिवा चवंति सामिय सयल-अहिंसावदाण आधारो। संतो विमोक्कसंगो तणुट्ठाण-कारणेण मुणी॥ ४/१५४५॥ परघरदुवारएसुं मज्झण्हे कायदरिसणं किच्चा।
पासुयमसणं भुंजदि पाणिपुडे विग्धपरिहीणं॥ ४/१५४६॥ अनुवाद-"मंत्री कल्कि से कहता है-स्वामी! वह मुनि सम्पूर्ण अहिंसाव्रतों का धारी है, समस्त परिग्रह से मुक्त है, शरीर की स्थिति के लिए वह दूसरों के घर के द्वार पर जाता है और शरीर को दिखाकर, मध्याह्नकाल में पाणिपात्र में अन्तरायरहित प्रासुक आहार ग्रहण करता है।"
सम्पूर्ण तिलोयपण्णत्ती में मुनि के इस निर्ग्रन्थ, जिनलिंग का और कोई विकल्प अर्थात् वस्त्रपात्रसहित लिंग कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। यह तिलोयपण्णत्ती में सवस्त्रमुक्तिनिषेध का प्रबल प्रमाण है।
मूलगुणों का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसार (३/८-९) में है। तिलोयपण्णत्तिकार ने उसी के आधार पर उनका कथन किया है। इससे प्रकट होता है कि वे कुन्दकुन्द की परम्परा के अनुगामी हैं।
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स्त्रीमुक्तिनिषेध पूर्व में तिलोयपण्णत्ती की 'सम्मत्त-णाण-अज्जव' इत्यादि गाथा (८/५८२) उद्धृत की गयी है। उसमें बतलाया गया है कि सम्यक्त्व, ज्ञान, आर्जव, लज्जा तथा शीलादिगुणों से परिपूर्ण स्त्रियाँ अच्युत स्वर्ग तक देवरूप में जन्म लेती हैं। इसके बाद की पूर्वोद्धृत गाथाओं में यह भी बतलाया गया है कि अच्युत स्वर्ग से ऊपर के स्वर्गों में जिनलिंगधारी (नग्न) मुनि ही देवरूप में उत्पन्न हो सकते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि स्त्रियों में अच्युत स्वर्ग से ऊपर जाने की योग्यता नहीं होती। यह स्त्रीमुक्ति के निषेध का प्रमाण है।
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