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४०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६ / प्र०४ आव.सूत्र - पडिक्कमामि तिहिं सल्लेहि-मायासल्लेणं नियाणसल्लेणं
मिच्छादसणसल्लेणं। ४/७। यहाँ तत्त्वार्थसूत्र और नियमसार के उद्धरणों में निःशल्य शब्द का साम्य है। यह शब्द आवश्यकसूत्र में अदृश्य है।
२९ तत्त्वार्थसूत्र - मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः। ८।१। समयसार - सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो।
मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा॥ १०९॥ समवायांग - पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं जहा–मिच्छत्तं अविरई
पमायाकसाया जोगा। समय ५। यहाँ समवायांग में मिथ्यात्वादि को आस्रवद्वार कहा गया है, जो अर्थ को साक्षात् संकेतित करता है, फिर भी तत्त्वार्थसूत्रकार ने उसे ग्रहण नहीं किया। समयसार का बन्धकर्तारः पद आस्रवहेतु अर्थ का परम्परया द्योतक है, फिर भी तत्त्वार्थ के कर्ता ने उसका ही अनुकरण किया है।
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तत्त्वार्थसूत्र - सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः।
८/२। प्रवचनसार – सपदेसो सो अप्पा कसायदो मोहरागदोसेहिं।
कम्मरजेहिं सिलिट्ठो बंधो त्ति परूविदो समये॥ २/९६॥ समवायांग - जोगबंधे कसायबंधे।" समय ५। स्थानांग - दोहिं ठाणेहिं पापकम्मा बंधंति, तं जहा–रागेण य दोसेण
य। २/२। यहाँ तत्त्वार्थ के सूत्र का केवल प्रवचनसार की गाथा से ही शब्दगत, अर्थगत और बन्धप्रक्रिया-निरूपणरूप साम्य है, अन्य दो उद्धरणों के साथ नहीं है।
तत्त्वार्थसूत्र - आस्रवनिरोधः संवरः। ९/१। समयसार - आसवणिरोहो (संवरः)। १६६ ।
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