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अ०१६ / प्र०७
तत्त्वार्थसूत्र / ४२१ अष्टशती (देवागम-विवृति) नामक भाष्य लिखनेवाले अकलंकदेव, 'आप्तमीमांसा' (देवागम) पर अष्टसहस्री (देवागमालंकार) नामक भाष्य रचनेवाले स्वामी विद्यानन्द, 'प्रेमयकमलमार्तण्ड', 'न्यायकुमुदचन्द्रोदय' एवं शाकटायन-न्यास, (शाकटायन-व्याकरणव्याख्या) के कर्ता आचार्य प्रभाचन्द्र तथा 'जैनेन्द्रन्यास' (जैनेन्द्रव्याकरण), पाणिनि के सूत्रों पर 'शब्दावतार' नामक न्यास, वैद्यशास्त्र और तत्त्वार्थटीका (सर्वार्थसिद्धि) के रचयिता पूज्यपादस्वामी एवं उनकी कृतियों का उल्लेख है। ये सभी दिगम्बरजैनाचार्य हैं। उक्त पद्यों के अनन्तर भी अनेक पद्य हैं, जिनमें पात्र-केसरी, त्रिलोकसारकर्ता नेमिचन्द्र, चामुण्डराय आदि अन्य अनेक दिगम्बर-जैनाचार्यों का वर्णन है।
१. इन दिगम्बरजैनाचार्यों के गुणकीर्तन एवं वन्दना के साथ आचार्य उमास्वाति का गुणकीर्तन एवं वन्दना की गयी है। इससे सिद्ध है कि वन्दना करनेवाला कवि एवं शिलालेख लिखानेवाले आचार्य, उनका संघ और राजा दिगम्बरजैन थे और वे उमास्वाति को दिगम्बर ही मानते थे। दिगम्बर होने के कारण वे किसी भी यापनीयआचार्य को नमस्कार नहीं कर सकते थे, क्योंकि यापनीयसंघ पाँच जैनाभासों मे आता था और मूलसंघ से बहिष्कृत था। दिगम्बरजैन मुनि व श्रावक जैनाभास साधुओं को नमस्कार करना तो दूर, उनके द्वारा प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमाओं को भी वन्दनीय नहीं मानते थे। (दसणपाहुड / श्रुतसागरटीका / गा.११ तथा बोधपाहुड । श्रुतसागरटीका / गा. १०)। यदि शिलालेख-लेखन से सम्बद्ध कवि, मुनिसंघ और राजा यापनीय-सम्प्रदाय के होते, तो उन्हें दिगम्बर जैनाचार्यों, उनके गुणों और कृतियों के प्रशंसातिशय-सहित उल्लेख से कोई प्रयोजन न होता। अतः सिद्ध है कि वे दिगम्बरजैन थे और शिलालेखोल्लिखित अन्य दिगम्बर जैनाचार्यों के समान तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति को भी दिगम्बराजैनाचार्य ही मानते थे।
२. पं० नाथूराम जी प्रेमी ने कहा है कि उक्त शिलालेख में यापनीय-आचार्य शाकटायन की भी स्तुति की गयी है। प्रेमी जी का यह कथन सर्वथा असत्य है। शिलालेख में शाकटायन का नहीं, शाकटायन-व्याकरण पर प्रभाचन्द्र द्वारा लिखे गये न्यास का उल्लेख है और इस न्यास के कर्ता होने से न्यायचन्द्रोदयकार आचार्य प्रभाचन्द्र को नमस्कार किया गया है-"न्यायकुमुदचन्द्रोदयकृते नमः शाकटायनकृतसूत्र-न्यासकर्ड ---।" (देखिये, पूर्वोद्धृत पद्य)। अतः आचार्य उमास्वाति को यापनीय सिद्ध करने के लिए प्रेमी जी द्वारा प्रस्तुत हेतु मिथ्या है।
३. यदि शिलालेख के कवि आदि यापनीयसम्प्रदाय के होते, तो वे उमास्वाति के साथ पाल्यकीर्ति शाकटायन को भी श्रद्धापूर्वक नमस्कार करते और उनके साथ श्रुतकेवलिदेशीय उपाधि का प्रयोग किये बिना नहीं रहते, क्योंकि शाकटायन के साथ इस उपाधि का प्रयोग ईसा की ९वीं शती से होता आ रहा था, उक्त शिलालेख तो
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