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पंचम प्रकरण तत्त्वार्थसूत्र के उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय
का ग्रन्थ न होने के प्रमाण
तत्त्वार्थसूत्र के उक्त सम्प्रदाय का ग्रन्थ होने की मान्यता
डॉ० सागरमल जी ने तत्त्वार्थसूत्र को दिगम्बर, श्वेताम्बर और यापनीय, इन तीनों में से किसी भी सम्प्रदाय का ग्रन्थ नहीं माना है। वे इसे एक स्वकल्पित उत्तरभारतीयसचेलाचेल-निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय का ग्रन्थ मानते हैं। उनका मान्यता है कि यह सम्प्रदाय भगवान् महावीर के उपदेशों का पालन करनेवाला मूल सम्प्रदाय था। यह अचेलमुक्ति, सचेलमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति, केवलिभुक्ति, भगवान् महावीर के गर्भपरिवर्तन और मल्लितीर्थंकर के स्त्री होने के मत को मानता था। (जै.ध. या. स./ पृ.३५०)। उनके अनुसार इस सम्प्रदाय या परम्परा का अस्तित्व तीर्थंकर महावीर के काल से लेकर ईसा की पाँचवीं शती के पूर्व तक बना रहा। पाँचवीं शती ई० में इसके विभाजन से श्वेताम्बर और यापनीय संघों की उत्पत्ति हुई। यापनीयसंघ उपर्युक्त अचेलमुक्ति, सचेलमुक्ति आदि सभी मान्यताओं को स्वीकार करता था और श्वेताम्बरसंघ को केवल अचेलमुक्ति मान्य नहीं है, शेष सभी मान्यताएँ स्वीकार्य हैं। एकमात्र यही दोनों में फर्क था। दिगम्बरपरम्परा को डॉ० सागरमल जी विक्रम की छठी शती में आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा दक्षिण भारत में प्रवर्तित मानते हैं। तत्त्वार्थसूत्र को उक्त स्वकल्पित उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा का ग्रन्थ बतलाते हुए डॉ० सागरमल जी लिखते हैं
"श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्परा के विद्वानों ने इसे अपनी परम्परा में रचित सिद्ध करने हेतु अनेक लेखादि लिखे हैं। मैंने उन सभी लेखों को, जिन्हें दोनों परम्पराओं के परम्परागत विद्वानों एवं कुछ तटस्थ विदेशी विद्वानों ने लिखा, देखने का प्रयास किया और उन सबको देखने के पश्चात् मैं इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि तत्त्वार्थसूत्र उस युग की रचना है, जब जैनपरम्परा में अनेक प्रश्नों पर सैद्धान्तिक और व्यावहारिक मतभेद उभरकर सामने आने लगे थे और जैनसंघ विभिन्न गण, कुल और शाखाओं में विभक्त हो गया। किन्तु इन मतभेदों एवं गणभेदों के होते हुए भी तब तक जैनसंघ श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय जैसे विभागों में विभाजित नहीं हुआ था। मेरी दृष्टि में तत्त्वार्थसूत्र की रचना उत्तर भारत की उस निर्ग्रन्थपरम्परा में
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