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अ०१६/प्र०४
तत्त्वार्थसूत्र / ४०३ समवायांग - उग्गहअणुण्णवणया उग्गहसीमंजाणणया सयमेव उग्गहं
अणुगिण्हणया साहम्मिय उग्गहं अणुण्णविय परिभुंजणया
साहारणपत्तपाणं अणुण्णविय पडिभुंजणया। २५ । यहाँ तत्त्वार्थ का सूत्र चारित्तपाहुड के सूत्र की हूबहू छाया है, जब कि समवायांग के सूत्र का कोई भी शब्द उससे मिलता-जुलता नहीं है।
२६ तत्त्वार्थसूत्र – मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च। (७/८)। चारित्तपाहुड - अपरिग्गहसमणुण्णेसु सद्दपरिसरूवगंधेसु।
रायबोसाईणं परिहारो भावणा होति॥ ३५॥ चारित्तपाहुड - अमणुण्णे य मणुण्णे सजीवदव्वे अजीवदव्वे य।
ण करेइ रायदोसे पंचिंदियसंवरो भणिओ॥ २८॥ समवायांग - सोइंदियरागोवरई चक्टुंदियरागोवरई घाणिंदियरागोवरई
जिब्भिंदियरागोवरई फासिंदियरागोवरई। समय २५ । यहाँ समवायांग के सूत्र का एक भी शब्द तत्त्वार्थ के सूत्र से सादृश्य नहीं रखता, न ही उसके साथ रचनात्मक समानता है, जब कि चारित्तपाहुड की गाथाओं से शाब्दिक साम्य भी है और रचनात्मक भी।
२७ तत्त्वार्थसूत्र - मूर्छा परिग्रहः। ७/१७ । प्रवचनसार - मुच्छा परिग्गहो---। ३/१७.२। (जयसेननिर्दिष्ट गाथा)। दशवैका.सूत्र – मुच्छा परिग्गहो---। ६/२१ ।
यहाँ तीनों में साम्य है, तथापि पूर्वोक्त उदाहरणों में सूत्रकार ने कुन्दकुन्द का ही अनुकरण किया है, इससे सिद्ध होता है कि यहाँ भी उन्हीं का अनुकरण किया गया है।
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तत्त्वार्थसूत्र - निःशल्यो व्रती। ७/१८ । नियमसार - मोत्तूण सल्लभावं णिस्सले जो दु साहु परिणमदि। ८७।
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