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अ०१६/प्र०३
तत्त्वार्थसूत्र / ३८३ का प्रयत्न किया है। किन्तु डॉ० सागरमल जी मानते हैं कि वह प्रक्षेप दिगम्बरों ने नहीं किया है, अपितु तत्त्वार्थसूत्र की रचना श्वेताम्बरों और यापनीयों की समान मातृपरम्परा (उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा) में हुई थी। उससे वह ग्रन्थ दोनों सम्प्रदायों को उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ और बाद में यापनीयों ने उसमें अपनी सोलहस्वर्गवाली मान्यता का समावेश कर दिया। यापनीयपरम्परा का यह तत्त्वार्थसूत्र-पाठ दिगम्बरों के पास आया और उन्होंने उसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया। अपनी इस मान्यता को प्रकट करते हुए वे लिखते हैं-"मेरी दृष्टि में तत्त्वार्थसूत्र की रचना उत्तरभारत की उस निर्ग्रन्थपरम्परा में हुई, जो उसकी रचना के पश्चात् एक-दो शताब्दियों में ही सचेल-अचेल ऐसे दो भागों में स्पष्ट रूप से विभक्त हो गई, जो क्रमशः श्वेताम्बर
और यापनीय (बोटिक) के नाम से जानी जाने लगी। जहाँ तक दिगम्बरपरम्परा का प्रश्न है, उन्हें यह ग्रन्थ उत्तरभारत की अचेलपरम्परा, जिसे यापनीय कहा जाता है, उससे ही प्राप्त हुआ।" (जै.ध.या.स./पृ. २३९-२४०)।
वे आगे लिखते हैं-"दिगम्बरपरम्परा-मान्य इस पाठ में, जहाँ चतुर्थ अध्याय का तीसरा सूत्र श्वेताम्बरपरम्परा के अनुसार वैमानिक देवों के बारह प्रकारों की ही चर्चा करता है, वहीं उन्नीसवाँ सूत्र दिगम्बरपरम्परा के अनुसार सोलह देवलोकों के नामों का उल्लेख करता है। इस प्रकार दिगम्बरपरम्परा द्वारा मान्य सूत्रपाठ में ही एक अन्तर्विरोध परिलक्षित होता है। चतुर्थ अध्याय के इन तीसरे और उन्नीसवें सूत्रों का यह अन्तर्विरोध विचारणीय है। यह कहा जा सकता है कि एक स्थान पर तो अपनी परम्परा के अनुरूप पाठ को संशोधित कर लिया गया है और दूसरे स्थान पर असावधानीवश वह यथावत् रह गया है। किन्तु एक स्थान पर प्रयत्नपूर्वक संशोधन किया गया हो और दूसरे स्थान पर उसे असावधानीवश छोड दिया गया हो, यह बात बद्धिगम्य नहीं लगती है। सम्भावना यही है कि दिगम्बर आचार्यों को ये सूत्र या तो इसी रूप में प्राप्त हुए हों अथवा उस परम्परा के सूत्र हों, जो सोलह स्वर्ग मानकर भी वैमानिक देवों के बारह प्रकार मानती हो। हो सकता है, यह यापनीय मान्यता हो।" (जै.ध.या.सा./ पृ.३१२)। दिगम्बरपक्ष
यहाँ डॉक्टर साहब के "हो सकता है, यह यापनीय मान्यता हो" ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं। अर्थात् वे निश्चितरूप से नहीं कह सकते कि वैमानिक देवों को बारह और कल्पों को सोलह मानना यापनीयों की मान्यता है। निश्चितरूप से न कह पाने का कारण यह है कि उनके पास इसे सिद्ध करनेवाला एक भी प्रमाण नहीं है। निष्कर्ष यह कि यह डॉक्टर साहब के मन की कल्पना मात्र है, प्रमाणसिद्ध तथ्य नहीं। वस्तुतः यापनीयपरम्परा का ऐसा एक भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं
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