________________
अ०१६/प्र०२
तत्त्वार्थसूत्र / ३८१ तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृद्धपृच्छोपलक्षितम्। वन्दे गणीन्द्रसज्जातमुमास्वामिमुनीश्वरम्॥
(तत्त्वार्थसूत्र में जोड़ा गया) इन श्लोकों में तत्त्वार्थसूत्रकर्तारम् तथा उमास्वातिमुनीश्वरम् (उमास्वामिमुनीश्वरम्) और वन्दे पदों का जो अत्यन्त साम्य है, उससे सिद्ध होता है कि नगर ताल्लुका के शिलालेखीय श्लोक में ही किञ्चित् परिवर्तन करके दूसरा श्लोक रचा गया है, अतः वह ई० सन् १५३० के बाद का है और रचयिता को 'उमास्वाति' के स्थान में 'उमास्वामी' शब्द के प्रयोग की प्रेरणा निश्चित ही श्री श्रुतसागरसूरिकृत तत्त्वार्थवृत्ति से प्राप्त हुई है, क्योंकि इस प्रयोग के लिए और कोई दूसरा साहित्यिक या शिलालेखीय प्रमाण उपलब्ध नहीं है। पट्टावलियों में तथा अन्यत्र भी 'उमास्वामी' शब्द का प्रयोग 'तत्त्वार्थवृत्ति' के अनुकरण से ही प्रचलित हुआ है।
'उमास्वाति' का संशोधित रूप होने के कारण 'उमास्वामी' भी तत्त्वार्थसूत्रकार का वास्तविक नाम नहीं है। अतः सिद्ध है कि आचार्य गृद्धपिच्छ अथवा गृध्रपिच्छाचार्य ही उनका वास्तविक नाम है।
पं० सुखलाल जी संघवी का कथन है कि भाष्य की प्रशस्ति में उमास्वाति ने अपने को उच्चनागर शाखा से सम्बद्ध बतलाया है। इस शाखा का दिगम्बरसम्प्रदाय में होने का एक भी प्रमाण नहीं मिलता। (त.सू. / वि.स. / प्रस्ता. / पृ.१७)।
__संघवी जी का कथन सही है। उमास्वाति तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के कर्ता थे, तत्त्वार्थसूत्र के नहीं, यह पूर्वोद्धृत प्रमाणों से सिद्ध किया जा चुका है। अतः उच्चनागर-शाखा या नागरशाखा का दिगम्बरसाहित्य में उल्लेख न होना स्वाभाविक है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org