________________
अ०१६ / प्र०२
तत्त्वार्थसूत्र / ३७९ नहीं किया।---'तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृद्धपिच्छोपलक्षितम्' आदि श्लोक मालूम नहीं कहाँ का है और कितना पुराना है। तत्त्वार्थसूत्र की मूल प्रतियों में यह पाया जाता है।" ('अनेकान्त'/वर्ष १/किरण ६-७/वैशाख-ज्येष्ठ/ वीरनिर्वाण सं. २४५६ / वि.सं.१९८७ / पृष्ठ ४०५)। तत्त्वार्थसूत्रकार का 'उमास्वाति' नाम संभव नहीं
श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में तत्त्वार्थसूत्रकार को जो 'उमास्वाति' नाम से अभिहित किया गया है, वह समीचीन नहीं है। श्वेताम्बरपरम्परा में तत्त्वार्थसूत्र और उस पर लिखा गया तत्त्वार्थाधिगमभाष्य, दोनों एक ही व्यक्ति द्वारा रचित माने गये हैं। तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के कर्ता ने भाष्य की प्रशस्ति में अपना नाम उमास्वाति बतलाया है, इसलिए श्वेताम्बरपरम्परा उमास्वाति को ही तत्त्वार्थसूत्र का कर्ता मानती है। किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ के इसी अध्याय के प्रथम प्रकरण (शीर्षक 'ग'/१) में सिद्ध किया गया है कि सूत्रकार और भाष्यकार भिन्न-भिन्न व्यक्ति है तथा द्वितीय प्रकरण में यह प्रमाणित किया गया है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की रचना तत्त्वार्थसूत्र पर 'सर्वार्थसिद्धि' नामक टीका लिखे जाने के बाद हुई थी। अतः तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता भाष्यकार से पूर्ववर्ती हैं। फलस्वरूप उनका नाम उमास्वाति नहीं हो सकता। यह नाम तो भाष्यकार (तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के कर्ता) का है।
यतः श्वेताम्बरपरम्परा तत्त्वार्थसूत्रकार और भाष्यकार को अभिन्न मानने के कारण उमास्वाति को ही तत्त्वार्थसूत्र का कर्ता मानती है, अतः इसी से भ्रमित होकर ईसा की १२वीं शताब्दी से दिगम्बर-परम्परा में तत्त्वार्थसूत्रकार गृद्धपिच्छाचार्य का दूसरा नाम उमास्वाति माना जाने लगा, जैसा कि उपर्युक्त शिलालेखों से स्पष्ट है। ___आगे चलकर दिगम्बरपरम्परा में 'उमास्वाति' के स्थान में उमास्वामी नाम प्रचलित हो गया। उसका सर्वप्रथम प्रयोग श्रुतसागर सूरि (१६वीं शती ई०) की तत्त्वार्थवृत्ति (पृ.१) में हुआ है-"वन्दे नमस्करोमि। कः? कर्ताहमुमास्वामिनामाचार्यः।" इस पर प्रकाश डालते हुए पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार 'जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश' में 'उमास्वाति या उमास्वामी?' नामक लेख (पृ.१०८) में लिखते हैं-"विक्रम की १६ वीं शताब्दी से पहले का ऐसा कोई ग्रन्थ अथवा शिलालेख आदि अभी तक मेरे देखने में नहीं आया, जिसमें तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता का नाम उमास्वामी लिखा हो। हाँ, १६वीं शताब्दी के बने हुए श्रुतसागरसूरि के ग्रन्थों में इस नाम का प्रयोग जरूर पाया जाता है। श्रुतसागरसूरि ने अपनी श्रुतसागरी टीका में जगह-जगह पर यही (उमास्वामी) नाम दिया है और औदार्यचिन्तामणि नाम के व्याकरण-ग्रन्थ में श्रीमानुमाप्रभुरनन्तरपूज्यपादः इस वाक्य में आपने 'उमा' के साथ 'प्रभु' शब्द लगाकर
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org