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अ० १६ / प्र०२
तत्त्वार्थसूत्र / ३७७ हैं, अतः उक्त वाक्य में प्रतिपादित अर्थ इन अनेक आचार्यों द्वारा प्रतिपादित किया गया है।
__प्रो० महेन्द्रकुमार जी जैन न्यायाचार्य ने भी इस विसंगति की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। वे लिखते हैं-"श्रुतसागर के पहिले विद्यानन्द आचार्य ने आप्तपरीक्षा (पृ.३) में भी इस श्लोक ('मोक्षमार्गस्यनेतारं' आदि) को सूत्रकार के नाम से उद्धृत किया है। पर यही विद्यानन्द 'तत्त्वार्थसूत्रकारैः उमास्वामिप्रभृतिभिः' जैसे वाक्य भी आप्तपरीक्षा (पृ.५४) में लिखते हैं, जो उमास्वामी के साथ ही साथ 'प्रभृति' शब्द से सूचित होनेवाले आचार्यों को भी तत्त्वार्थसूत्रकार मानने का या 'सूत्र' शब्द की गौणार्थता का प्रसंग उपस्थित करते हैं।" (तत्त्वार्थवृत्ति/भारतीय ज्ञानपीठ काशी/ई.सन् १९४९/प्रस्तावना/ पृ.८५)। ___श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल जी संघवी ने भी उक्त विसंगति का प्रदर्शन किया है। उन्होंने लिखा है-"पहले कथन ('तत्त्वार्थसूत्रकारैरुमास्वामिप्रभृतिभिः') में 'तत्त्वार्थसूत्रकार' यह उमास्वामी बगैरह आचार्यों का विशेषण है, न कि मात्र उमास्वामी का। अब यदि मुख्तार जी (पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार) के कथनानुसार अर्थ किया जाय, तो ऐसा फलित होता है कि उमास्वामी बगैरह आचार्य तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता हैं। यहाँ तत्त्वार्थसूत्र का अर्थ यदि 'तत्त्वार्थाधिगमशास्त्र' किया जाए, तो यह फलित अर्थ दूषित ठहरता है, क्योंकि तत्त्वार्थाधिगमशास्त्र अकेले उमास्वामी द्वारा रचित माना जाता है, न कि उमास्वामी आदि अनेक आचार्यों द्वारा।" (त.सू. / वि.स. / प्रस्तावना/पृ. ७६)।
यह विसंगति इस बात का प्रबल प्रमाण है कि 'तत्त्वार्थसूत्रकारैरुमास्वामिप्रभृतिभिः' यह वाक्यांश आप्तपरीक्षाकार विद्यानन्द स्वामी का नही है, अपितु जब तत्त्वार्थसूत्रकार के लिए उमास्वामी नाम प्रसिद्ध हो गया, तब किसी के द्वारा प्रक्षिप्त कर दिया गया। प्रक्षिप्त करनेवाला आदरसूचनार्थ 'तत्त्वार्थसूत्रकारैरुमास्वामिभिः' इस प्रकार बहुवचन का प्रयोग करना चाहता था, किन्तु अज्ञानतावश 'प्रभृति' शब्द जोड़कर अर्थ का अनर्थ कर दिया।
४. श्री विद्यानन्दस्वामी के समय (८वीं-९ वीं शती ई०) तक तत्त्वार्थसूत्रकार के लिए 'उमास्वामी' नाम प्रचलित भी नहीं हुआ था, क्योंकि श्रवणबेलगोल के ई० सन् १४३३ (शक सं० १३५५) तक के शिलालेखों में तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वाति नाम से ही उल्लिखित किये गये हैं।
इन चार प्रमाणों से सिद्ध होता है कि 'तत्त्वार्थसूत्रकारैरुमास्वामिप्रभृतिभिः' वाक्यांश विद्यानन्दस्वामी की लेखनी से उद्भूत नहीं हुआ है, अपितु प्रक्षिप्त है। विद्यानन्दस्वामी ने केवल गृध्रपिच्छाचार्य को ही तत्त्वार्थसूत्रकार कहा है।
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