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३८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६ / प्र०२ ओर भी साफ तौर से उमास्वामी नाम को सूचित किया है। जान पड़ता है कि 'उमास्वाति' की जगह 'उमास्वामी' यह नाम श्रुतसागरसूरि का निर्देश किया हुआ है और उनके समय से ही यह हिन्दीभाषा आदि के ग्रन्थों में प्रचलित हुआ है। और अब इसका प्रचार इतना बढ़ गया है कि कुछ विद्वानों को उसके विषय में बिलकुल ही विपर्यास हो गया है और वे यहाँ तक लिखने का साहस करने लगे हैं कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता का नाम दिगम्बरों के अनुसार 'उमास्वामी' और श्वेताम्बरों के अनुसार 'उमास्वाति' है। (पादटिप्पणी-देखो, तत्त्वार्थसूत्र के अंग्रेजी अनुवाद की प्रस्तावना)।"
श्रुतसागरसूरि को प्रमाण मानकर ही तत्त्वार्थसूत्र के मूलपाठ में निम्नलिखित श्लोक जोड़ा जाने लगा
तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृद्धपिच्छोपलक्षितम्।
वन्दे गणीन्द्रसञ्जातमुमास्वामिमुनीश्वरम्॥ अनुवाद-तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता, गृद्धपिच्छधारी, गणीन्द्रपद को प्राप्त मुनीश्वर उमास्वामी को मैं नमस्कार करता हूँ।
यह श्लोक कितना पुराना है और किस ग्रन्थ का है, इसके विशय में पं० नाथूराम जी प्रेमी का कथन है कि उन्हें इसका कोई पता नहीं है। (देखिये, उनके पूर्वोद्धृत वचन/ अनेकान्त'/वर्ष १/किरण ६-७/पृ. ४०५)। पं० कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री लिखते हैं कि मूल तत्त्वार्थसूत्र की प्रतियो में यह बाद में जोड़ा गया है। (तत्त्वार्थसूत्र । प्रस्तावना/पृ. २२)। किन्तु इस श्लोक के रचनाकाल का अनुमान लगाना कठिन नहीं है। यह श्लोक सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के सूत्रपाठ में नहीं पाया जाता, न ही इनके कर्ताओं ने उमास्वामी को तत्त्वार्थसूत्र का कर्ता बतलाया है। इसके अतिरिक्त श्रवणबेलगोल के ई० सन् १४३३ (शक सं० १३५५) तक के सात शिलालेखों में तथा कर्नाटक के नगर ताल्लुका के ई० सन् लगभग १५३० के शिलालेख में उमास्वामी को नहीं, अपितु उमास्वाति को तत्त्वार्थ-सूत्र का कर्ता कहा गया है। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि उमास्वाति के स्थान में 'उमास्वामी' शब्द का प्रयोग ई० सन् १५३० के बाद प्रचलित हुआ, अतः उपर्युक्त श्लोक ई० सन् १५३० के बाद का है।
दूसरी बात यह है कि उपर्युक्त श्लोक कर्नाटक के नगर ताल्लुका के १५३० ई० के शिलालेखगत श्लोक से पर्याप्त साम्य रखता है। यथा
तत्त्वार्थसूत्र-कर्तारमुमास्वाति-मुनीश्वरम्। श्रुतकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम्॥
(नगर ताल्लुका-शिलालेख)
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