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अ०१६/प्र०४
तत्त्वार्थसूत्र / ३९१ शाखा तथा 'वाचक' पद का पाया जाना भी उनके स्थविरपक्षीय होने का सूचक है। उमास्वाति विक्रम की तीसरी शताब्दी से पाँचवीं शताब्दी तक किसी भी समय में हुए हों, पर उन्होंने 'तत्त्वार्थ' की रचना के आधाररूप में जिस अङ्ग-अनङ्ग श्रुत का अवलम्बन किया था, वह स्थविरपक्ष को मान्य था। अचेल-दल उसके विषय में या तो उदासीन था या उसका त्याग कर बैठा था।" (वही / प्रस्ता./पृ. २३)।
इस प्रकार पं० सुखलाल जी संघवी भी मानते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना स्थविरपक्ष (सचेलदल) को मान्य अङ्ग-अनङ्ग श्रुत अर्थात् श्वेताम्बर-आगमों के आधार पर हुई है।
डॉ० सागरमल जी का भी यही मत है। उन्होंने लिखा है-"--- श्वेताम्बरपरम्परा के विद्वान्, जो अङ्ग और अङ्गबाह्य आगमों की उपस्थिति को स्वीकार करते हैं, तत्त्वार्थसूत्र का आधार अङ्ग और अङ्ग बाह्य आगमसाहित्य को मानते हैं। स्थानकवासी आचार्य आत्माराम जी ने तत्त्वार्थसूत्र-जैनागम-समन्वय नामक ग्रन्थ में तत्वार्थसूत्र की रचना का आधार श्वेताम्बरमान्य आगम-साहित्य को बताते हुए तत्त्वार्थसूत्र के प्रत्येक सूत्र की रचना का आगमिक आधार क्या है, इसे आगमों के उद्धरण देकर परिपुष्ट किया है।" (जै.ध.या.स./ पृ. २४५)। दिगम्बरपक्ष
मान्य श्वेताम्बर मुनियों एवं विद्वानों का उपर्युक्त दावा समीचीन नहीं हैं। उपाध्याय श्री आत्माराम जी ने तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बर-आगमों के आधार पर रचित सिद्ध करने के लिए 'तत्त्वार्थसूत्र-जैनागम-समन्वय' में जो उदाहरण दिये हैं, उनमें कुछ ऐसे उदाहरण भी हैं, जो केवल नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वारसूत्र में मिलते हैं। किन्तु इन दोनों ग्रन्थों की रचना पाँचवी शताब्दी ई० (वि० सं० ५२३) में हुई है,१५६ जिससे स्पष्ट है कि ये ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र के बाद रचे गये हैं। डॉ० सागरमल जी ने भी स्वीकार किया है कि अनुयोगद्वारसूत्र निश्चित ही तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके भाष्य से किञ्चित् परवर्ती हैं।१५७ अतः ये दोनों ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र की रचना के आधार नहीं हो सकते। इनमें तत्त्वार्थसूत्र से साम्य रखनेवाले जो विषय हैं, वे तत्त्वार्थसूत्र से ही उनमें पहुँचे हैं। इसलिए इन दोनों ग्रन्थों में तत्त्वार्थसूत्र के जो बीज बतलाये गये हैं, वे वस्तुतः श्वेताम्बरआगमों में अनुपलब्ध हैं। उनके बीज दिगम्बर-आगमों में ही हैं। तत्त्वार्थ के जिन सूत्रों को तत्त्वार्थसूत्र-जैनागम-समन्वय में उपर्युक्त ग्रन्थों पर आधारित बतलाया गया
१५६. देवेन्द्र मुनि शास्त्री : जैनागम साहित्य मनन और मीमांसा / पृ. ३२८ तथा डॉ. जगदीश
चन्द्र जैन : प्राकृत साहित्य का इतिहास / पृ. १७१ । १५७. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ. ३२२।
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