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३८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६/प्र०३ को श्रुतसागर जी ने भगवती-आराधना के नाम से लिख दिया है। श्रुतसागर जी के समय में दिगम्बर-परम्परा के भट्टारक वस्त्र धारण करने लगे थे। यद्यपि वे साधु नहीं माने जाते थे, तथापि इनकी प्रतिष्ठा वैसी ही थी। मुसलमानों के उपद्रवों के कारण भी साधुओं के नग्नविहार में कुछ कठिनाइयाँ उपस्थित होने लगी थीं। ऐसा उन्होंने अपनी षट्प्राभृत की टीका में स्पष्ट लिखा है। श्रुतसागर जी के उक्त कथन के मूल में इन सब बातों का भी प्रभाव प्रतीत होता है। अतः उसे आर्षमत नहीं माना जा सकता। और इसीलिए पुलाकादि मुनियों की चर्चा को दिगम्बरमत के प्रतिकूल नहीं कहा जा सकता।" (जै.सा.इ./ भा.२/पृ.२६७-२६८)।
पण्डित जी का यह कथन युक्तिसंगत है, जिससे सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्र का 'पुलाकबकुश' आदि सूत्र (९/४६) दिगम्बरमत-सम्मत ही है।
यहाँ इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ कि अपराजितसूरि ने भगवती-आराधना की टीका में जो यह लिखा है कि विशेष अवस्था में अशक्त साधु वस्त्र आदि ग्रहण कर सकते हैं, वह उन्होंने श्वेताम्बरमत का उल्लेख किया है। यह 'भगवती-आराधना' और 'अपराजितसूरि : दिगम्बराचार्य' नामक त्रयोदश एवं चतुर्दश अध्यायों में स्पष्ट किया जा चुका है।
दिगम्बरग्रन्थों में भी केवली का दर्शनज्ञानयोगपद्य श्वेताम्बरपक्ष
श्वेताम्बर विद्वान् यह तर्क भी देते है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (१/३१ / पृ.५६) में केवली भगवान् के दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग का युगपत् होना माना गया है, जो दिगम्बर ग्रन्थों में दिखाई नहीं देता। इसलिए तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरग्रन्थ नहीं है। (पं० सुखलाल जी संघवी/त.सू./वि.स./प्रस्ता./पृ. १७)। दिगम्बरपक्ष
सूत्रकार और भाष्यकार भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं, इसलिए भाष्यकार की मान्यता को सूत्रकार की मान्यता नहीं माना जा सकता। जहाँ तक केवली के दर्शनज्ञानयोगपद्य का प्रश्न है, सर्वार्थसिद्धि में स्पष्ट कहा गया है कि छद्मस्थों में दर्शन और ज्ञान क्रम से प्रवृत्त होते हैं और केवली में युगपत् "साकारं ज्ञानमनाकारं दर्शनमिति। तच्छद्मस्थेषु क्रमेण वर्तते, निरावरणेषु युगपत्।" (२/९) कुन्दकुन्दाचार्य ने भी नियमसार में कहा है
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