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अ०१६/प्र०२
तत्त्वार्थसूत्र / ३७३
भाष्य का रचनाकाल छठी शती ई० का पूर्वार्ध ऊपर तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के रचनाकाल का अन्वेषण करते हुए इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि उसकी रचना पाँचवीं शती ई० के उत्तरार्ध में तत्त्वार्थसूत्र के पुस्तकारूढ़ होने के पश्चात् हुई है। वह पश्चाद्वर्ती समय छठी शती ई० का पूर्वार्ध हो सकता है। इसकी पुष्टि निम्नलिखित प्रमाणों से होती है। पं० नाथूराम जी प्रेमी 'जैन साहित्य और इतिहास' (द्वि.सं./पृ.५४५-५४६) में लिखते हैं
"अध्याय ५, सूत्र २९ के तत्त्वार्थभाष्य में उमास्वाति ने पातञ्जलयोगसूत्र के दो सूत्र उद्धृत किये हैं-"योगिज्ञानप्रमाणाभ्युपगमे त्वभ्रान्तस्तदवस्थाभेदः। एवं यमादिपालनानर्थक्यम्। एवं च सति 'अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः, 'शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः' इति आगमवचनं वचनमात्रम्।"
और जैसा कि पं० राहुल सांकृत्यायन ने कहा है, योगसूत्रकार का समय ईस्वी सन् २५० (वि० सं० ३०७) के लगभग है। अत एव उमास्वाति का समय विक्रम की चौथी शती के लगभग होगा।
. "योगसूत्र और उसके भाष्य के साथ तत्त्वार्थसूत्रों और तत्त्वार्थभाष्य की शाब्दिक तथा आर्थिक समानता बहुत है। अभी तक यह निश्चय नहीं हो सका था कि किस का किस पर असर है, परन्तु योगसूत्र के उपरिलिखित दो सूत्रों के तत्त्वार्थभाष्य में उद्धृत होने से यह निश्चय हो जाता है कि योगसूत्र भाष्य से पहले का है और उसी का भाष्य पर असर है। अब योगसूत्र के व्यासभाष्य को भी लीजिए। उसका प्रभाव भी तो तत्त्वार्थभाष्य पर दिखलाई देता है।
"जैनागमों में यह चर्चा आती है कि पहले बाँधी हुई आयु टूट भी सकती है और नहीं भी टूटती। परन्तु यहाँ आयु के टूट सकने के पक्ष में भीगे कपड़े और सूखे घास के उदाहरण नहीं मिलते, जब कि तत्त्वार्थभाष्य में मिलते हैं और व्यासभाष्य में भी। दोनों भाष्यों के पाठ इस प्रकार हैं
"---शेषा मनुष्यास्तिर्यग्योनिजाः सोपक्रमा निरुपक्रमाश्चापवायुषोऽनपवायुषश्च भवन्ति।---अपवर्तनं शीघ्रमन्तर्मुहूर्तात्कर्मफलोपभोगः उपक्रमोऽपवर्तननिमित्तम्। ---संहतशुष्कतृणराशि-दहनवत्। यथाहि संहतस्य शुष्कस्यापि तृणराशेरवयवशः क्रमेण दह्यमानस्य चिरेण दाहो भवति तस्यैव शिथिलप्रकीर्णापचितस्य सर्वतो युगपदादीपितस्य पवनोपक्रमाभिहतस्याशु दाहो भवति तद्वत्।---यथा वा धौतपटो जलार्द्र एव संहतश्चिरेण
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