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अ० १६ / प्र० २
तत्त्वार्थसूत्र / ३६५
इस प्रकार उन्होंने व्याख्या न किये जाने को व्याख्याग्रन्थ का अविस्तृत या अविकसित होना कहा है और उसे प्राचीनता का लक्षण माना है। डॉक्टर सा० के इस कथन से मैं सहमत हूँ कि मार्गणा की व्याख्या में भाष्यकार ने केवल गति, इन्द्रिय आदि का नामोल्लेख किया है। किन्तु केवल उपर्युक्त सूत्र की ही नहीं, अनेक सूत्रों की व्याख्या भाष्यकार ने इतने कम शब्दों में की है कि उसे व्याख्या ही नहीं कहा जा सकता। सूत्र के ही शब्दों में कोई पद या क्रिया जोड़कर भाष्यवाक्य लिख दिया गया है । शब्दों का अर्थ भी स्पष्ट नहीं किया। उदाहरणार्थ
१
सूत्र - औपशमिक क्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणा - मिकौ च । (२/१) ।
भाष्य - औपशमिकः क्षायिकः क्षायोपशमिक औदयिकः पारिणामिक इत्येते पञ्च भावा जीवस्य स्वतत्त्वं भवन्ति । (२ / १)
यहाँ भाष्य सूत्र के ही बराबर संक्षिप्त है, क्योंकि व्याख्या तो कोई की ही नहीं गई है। औपशमिक, क्षायिक आदि शब्द भाष्य में ज्यों के त्यों रख दिये गये हैं। उनका व्युत्पत्तिपूर्वक अर्थ स्पष्ट किया जाता तब कहीं सूत्र की व्याख्या कहला सकती थी। सर्वार्थसिद्धिकार ने यह किया है, इसलिए उनकी व्याख्या की पंक्तियाँ बढ़ गई हैं। ऐसा नहीं माना जा सकता कि भाष्यकार को इन शब्दों की व्युत्पत्ति या अर्थ मालूम नहीं था अथवा उनके समय तक उसका विकास नहीं हुआ था और सर्वार्थसिद्धिकार ने ही उसे विकसित किया है। यदि ऐसा होता, तो पूर्ववर्ती सभी आचार्य, उनके अर्थबोध से रहित होते और उनके लिए तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन असंभव हो जाता। अतः संस्कृतज्ञ भाष्यकार को उक्त शब्दों की व्युत्पत्ति और अर्थ तो मालूम था, लेकिन उसे बतलाने की उनकी रुचि नहीं हुई । यही भाष्य के संक्षिप्त होने का कारण है । अन्य उदाहरण इस प्रकार हैं
२
सूत्र - उपयोगो लक्षणम् । (२ / ८) ।
भाष्य - उपयोगो लक्षणं जीवस्य भवति । (२ / ८) |
यहाँ भी उपयोग की व्याख्या नहीं की गई।
३
सूत्र - संसारिणो मुक्ताश्च । (२/१०)।
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