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३५२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६ / प्र० २
तथा उनके द्वारा उपदिष्ट श्रुत के भेदों की चर्चा की गई है । १३८ इसे मंगलाचरण की भूमिका समझना चाहिए। और मंगलाचरण के बाद भी सूत्र की व्याख्या आरंभ नहीं होती, अपितु पुनः अन्य विषय का वर्णन शुरू हो जाता है। आगे अनेक निदर्शनाओं के द्वारा जिनवचन को ग्रहण करना कितना कठिन है, इस बात का काव्यात्मक विवेचन किया गया है। १३९ तत्पश्चात् वक्ता के कर्त्तव्य और उसके सुफल पर प्रकाश डाला गया है। उसके बाद कहीं प्रथम सूत्र की प्रस्तावना का नम्बर आया है। सर्वार्थसिद्धि में सूत्रकारकृत मंगलाचरण के बाद ही प्रथमसूत्र की प्रस्तावना आरंभ हो जाती है, जो अतिसंक्षेप में गद्य में निबद्ध है । तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में यह इकतीस श्लोकों में निबद्ध विस्तृत पद्यात्मक प्रस्तावना परम्परा से एकदम अलग है, जो नवीन प्रयोग है। यह इस बात का महत्त्वपूर्ण प्रमाण है कि भाष्य की शैली सर्वार्थसिद्धि की शैली से अर्वाचीन है।
२. संस्कृत के किसी भी सूत्रग्रन्थ एवं भाष्य के अंत में श्लोकबद्ध विस्तृत उपसंहार उपलब्ध नहीं होता । पातंजलयोगसूत्र और उसका व्यासभाष्य इसके उदाहरण हैं। सर्वार्थसिद्धि के अंत में तीन पद्यों में यह कहा गया है कि " तत्त्वार्थसूत्र की इस वृत्ति का सर्वार्थसिद्धि नाम रखा है। यह जिनेन्द्रदेव के शासनरूपी अमृत का सार हैं। जो इसे भक्तिपूर्वक पढ़ते-सुनते हैं, उन्हें संसारसुख और मोक्षसुख दोनों की प्राप्ति होती है। अंत में वृत्तिकार ने तत्त्वार्थ का उपदेश देनेवाले वीरभगवान् को प्रणाम किया है। इसके विपरीत तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में प्रस्तावना के समान ही बत्तीस श्लोकों में विस्तारपूर्ण उपसंहार निबद्ध किया गया है, जिसमें तत्त्वपरिज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति किस क्रम से होती है, मुक्तात्मा ऊर्ध्वगमन क्यों करता है, प्राग्भारावसुधा का स्वरूप कैसा है, सिद्ध उससे ऊपर क्यों नहीं जा सकते, वे पुनः संसार में क्यों नहीं आते, सुख शब्द का प्रयोग किस-किस पदार्थ के लिए होता है, मुक्त जीवों के सुख का स्वरूप क्या है, इत्यादि विषय का वर्णन है । १४० यह वर्णित विषय की संक्षिप्त पुनरावृत्ति एवं नवीन विषय का विस्तृत निरूपण भी परम्परा से हटकर नवीन प्रयोग है। यह भी इस बात का प्रमाण है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य शैली की दृष्टि से सर्वार्थसिद्धि से बहुत आगे है।
३. संस्कृत के किसी भी सूत्रग्रन्थ या भाष्यग्रन्थ के अंत में कर्त्ता ने अपना परिचय नहीं दिया, पातंजलयोगसूत्र और उसके भाष्य से यह स्पष्ट है । सर्वार्थसिद्धिकार ने भी अपना परिचय नहीं दिया । किन्तु तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के कर्त्ता ने भाष्य के अंत
१३८. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य / सम्बन्धकारिका १ -२० / पृ. १-९ ।
१३९. वही / २३ - ३१ / पृ. ११-१४ ।
१४०. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य / उपसंहारकारिका १-३२ / पृ. ४६४ - ४६६ ।
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