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३५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६/प्र०२ कहा है कि नग्न रहकर मनोविकारजन्य अंगविकृति के द्वारा नाग्न्य को दूषित न होने देना नाग्न्यपरीषहजय है, किन्तु अन्य साधु मनोविकार को रोकने में असमर्थ होने के कारण तजन्य अंगविकृति को छिपाने के लिए कौपीन, फलक, चीवर आदि से अंग को ढंक लेते हैं। उससे अंग का ही संवरण होता है, कर्म का नहीं। (त.रा.वा. / ९/९/१०/पृ.६०९)।१३४ तथा पात्र में आहार करने से परिग्रहदोष, पात्र के संरक्षणप्रक्षालन आदि से हिंसादि दोष, पात्र लेकर भिक्षा के लिए भ्रमण करने से दैन्यदोष
और याचनादोष आदि अनेक दोष लगते हैं, जिनसे पाप का आस्रव होता है। (त. रा.वा.९/५/१०-११/पृ. ५९४-५९५)।
इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थराजवार्तिककार भट्ट अकलंकदेव ने तत्त्वार्थाधिगमभाष्य का अध्ययन किया था। किन्तु सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद स्वामी ने न तो अकलंकदेव की तरह भाष्यमान्य सूत्रपाठों की विसंगतियाँ दर्शायी हैं, न ही भाष्य में जो वस्त्रपात्र को धर्म का साधन बतलाकर नाग्न्यादि परीषहों को असंगत बना दिया है, उसकी आलोचना की है और न भाष्य के अन्त में दिये गये ३२ श्लोक सर्वार्थसिद्धि में उद्धृत किये हैं। ये इस बात के पक्के सबूत हैं कि सर्वार्थसिद्धिकार को तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के दर्शन नहीं हुए। यदि हुए होते, तो वे उपर्युक्त विसंगतियों और सूत्रविरुद्ध प्रतिपादनों के विरोध में टिप्पणी किये बिना न रहतें, जैसा कि उन्होंने श्वेताम्बरागमों के केवलिभुक्ति और मांसाशनादि-प्रतिपादक वचनों को केवली और श्रुत का अवर्णवाद बतलाकर तीक्ष्ण विरोध किया है।३५ स्त्रीमक्ति का भी अलग से निषेध किया है।३६ प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् पं० दलसुख मालवणिया भी लिखते हैं-"स्पष्ट है कि श्वेताम्बरों की आगमवाचना में केवली के कवलाहार का प्रतिपादन है। उसे पूज्यपाद ने केवली का अवर्णवाद बताया है और श्वेताम्बरों की आगमवाचना में मांसाशन की आपवादिक सम्मति दी गई, उसे भी श्रुतावर्णवाद आचार्य ने माना है।"१३७ इससे ऐसा प्रतीत होता है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य वलभीवाचना (सन् ४५४४६६ ई०) के बाद रचा गया है और उसी समय तत्त्वार्थ के मूलसूत्रों में परिवर्तन किया गया।
१३४. देखिये, मूलपाठ-अध्याय २/प्रकरण ५/शीर्षक ३.८। १३५. "कवलाभ्यवहारजीविनः केवलिन इत्येवमादिवचनं केवलिनामवर्णवादः। मांसभक्षणाद्यन
वद्याभिधानं श्रुतावर्णवादः।" सर्वार्थसिद्धि ६/१३ । १३६. “लिङ्गेन केन सिद्धिः? अवेदत्वेन, त्रिभ्यो वा वेदेभ्यः सिद्धिर्भावतो न द्रव्यतः? द्रव्यतः
पुल्लिङ्गेनैव।" सर्वार्थसिद्धि १०/९/ पृ. ३७४ । १३७. लेख 'तत्त्वार्थ की दिगम्बर टीकाओं में आगम और निर्ग्रन्थता की चर्चा'| सिद्धान्ताचार्य
पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री अभिनन्दनग्रन्थ / पृ. १३६ ।
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