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अ०१६ / प्र०२
तत्त्वार्थसूत्र / ३४९ (तत्त्वार्थराजवार्तिक ५/४२/३/पृ.५०३)। अर्थात् कुछ लोग धर्म, अधर्म, आकाश और काल में परिणाम को अनादि कहते हैं तथा जीव और पुद्गल में सादि, किन्तु उनका यह कथन अयुक्त है।
इसी प्रकार "अवग्रहेहावायधारणाः" (स.सि./१/१५) इस सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ के अवाय के स्थान में भाष्यमान्य सूत्रपाठ में अपाय शब्द है। अकलंकदेव ने इन दोनों को उचित ठहराया है।३२ "भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम्" (स.सि. । १/२१) में देव शब्द पहले है, नारक बाद में। किन्तु भाष्यमान्य सूत्रपाठ में नारक शब्द पहले है यथा-"भवप्रत्ययो नारकदेवानाम्" (१/२२)। अकलंकदेव ने व्याकरण के नियमानुसार 'देव' शब्द को ही पूर्वप्रयोग के योग्य बतलाया है।१३३ "म्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः" (स.सि./२/२०) इस सूत्रपाठ के तदर्थाः के स्थान में भाष्यमान्य सूत्रपाठ में तेषामर्थाः पाठ है (२/२१)। अकलंकदेव ने तदर्थाः प्रयोग को निर्दोष सिद्ध किया है। (त.रा. वा. २/२०)। सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ में "द्रव्याणि" (५/२) तथा "जीवाश्च" (५/३) ऐसे अलग-अलग सूत्र हैं। भाष्य में इन दोनों का एक ही सूत्र में संग्रह किया गया है-"द्रव्याणि जीवाश्च।" (५/२)। तत्त्वार्थराजवार्तिककार ने इसे अयुक्तिमत् बतलाया है और पृथक्-पृथक् सूत्रों द्वारा निर्देश ही उचित माना है, क्योंकि इससे ऐसा लगता है कि केवल जीव ही द्रव्य है, धर्माधर्म आदि नहीं। (त.रा.वा. ५/३/२-३/ पृ. ४४१-४४२) इसी प्रकार "अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य" (स.सि./ ६/१७) तथा "स्वभावमार्दवं च" (स.सि./६/१८) इन दो सूत्रों का भाष्य में एकयोग किया गया है, यथा-"अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्य" (६/१८)। तत्त्वार्थराजवार्तिककार ने इसे भी अयुक्त माना है, क्योंकि इस अवस्था में स्वभावमार्दव देवायु का आस्रव सिद्ध नहीं होगा। (त.रा.वा./६/१८) "मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानाम्" (स.सि./८/६) इस पाठ के स्थान में भाष्य में केवल "मत्यादीनाम्" (८/७) पाठ है। इसे अनुचित ठहराते हुए अकलंकदेव कहते हैं-"इससे अलगअलग ज्ञान के साथ अलग-अलग आवरण का बोध नहीं होता, सबका आवरण एक ही है, ऐसा बोध होता है।" (त.रा.वा.८/६/२/पृ.५७०)।
तत्त्वार्थधिगमभाष्य (९/५/७/२४) में साधु के लिए जो वस्त्रपात्रादि को धर्म का साधन बतलाया गया है, तत्त्वार्थराजवार्तिककार ने उसकी भी आलोचना की है।
१३२."आह–किमयम् अपाय उत अवाय इति? उभयथा न दोषः।" तत्त्वार्थराजवार्तिक १/१५/
१३/ पृ. ६१। १३३. "देवशब्दो हि अल्पाजभ्यर्हितश्चेति वृत्तौ पूर्वप्रयोगार्हः।" तत्त्वार्थराजवार्तिक /१/२१/७/
पृ.८०।
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