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अ० १६ / प्र० १
तत्त्वार्थसूत्र / ३१७
के वर्णन का प्रस्ताव करके उसके अनीक और अनीकाधिपति ये दो उपभेद बतलाये जाते, तब कोई विरोध या असंगति नहीं होती । किन्तु ऐसा नहीं किया गया है। भेदों के अन्तर्गत ही अनीकाधिपति की गणना की गयी है, इससे सिद्ध है कि भाष्यकार को देवों के ग्यारह भेद ही मान्य हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि भाष्यकार का सूत्रकार के साथ मतभेद है।
२.८. 'सारस्वत्यादित्य
मुख्तार जी द्वारा जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश के पृष्ठक्रमांक १२९ - १३० पर 'सूत्र' और 'भाष्य' में बतलायी गयी चौथी विसंगति इस प्रकार है— श्वेताम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र के " सारस्वत्यादित्यवह्न्यरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधमरुतोऽरिष्टाच९५ इस सूत्र (४ / २६) में लौकान्तिक देवों के सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध, मरुत और अरिष्ट, ये नौ भेद बतलाये गये हैं, किन्तु भाष्यकार ने 'ब्रह्मलोकालया लोकान्तिकाः' (४/२५ / पृ. २३२ ) इस पूर्वसूत्र के तथा इस सूत्र के भाष्य में लोकान्तिक देवों की संख्या आठ ही बतलायी है ।'
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इस विसंगति पर टिप्पणी करते हुए मुख्तार जी लिखते हैं- " इस विषय में सिद्धसेनगणी तो यह कहकर छुट्टी पा गये हैं कि लोकान्त में रहनेवालों के ये आठ भेद, जो भाष्यकार सूरि ने अंगीकार किये हैं, वे रिष्टविमान के प्रस्तार में रहनेवालों की अपेक्षा नौ भेद रूप हो जाते हैं, आगम में भी नौ भेद कहे हैं, इससे कोई दोष नहीं, परन्तु मूल सूत्र में जब स्वयं सूत्रकार ने नौ भेदों का उल्लेख किया तब अपने ही भाष्य में उन्होंने नौ भेदों का उल्लेख न कर आठ भेदों का ही उल्लेख क्यों किया, इसकी वे कोई माकूल (युक्तियुक्त) वजह नहीं बतला सके। इसी से शायद पं० सुखलाल जी को उस प्रकार से कहकर छुट्टी पा लेना उचित नही जँचा, और इसलिए उन्होंने भाष्य की स्वोपज्ञता में बाधा न पड़ने देने के ख्याल से यह कह दिया है कि " यहाँ मूल सूत्र में 'मरुतो' पाठ पीछे से प्रक्षिप्त हुआ है।" परन्तु इसके लिए वे कोई प्रमाण उपस्थित नहीं कर सके। जब प्राचीन से प्राचीन श्वेताम्बरीय टीका में मरुतो पाठ स्वीकृत किया गया है, तब उसे यों ही दिगम्बरपाठ की बात को लेकर प्रक्षिप्त नहीं कहा जा सकता।" (जै. सा. इ. वि.प्र. / पृ. १३० ) ।
९५. " सारस्वतादित्यवह्न्यरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधारिष्टाश्च ।" तत्त्वार्थसूत्र (दिगम्बर) ४/२५ । ९६. “ब्रह्मलोकं परिवृत्याष्टासु दिक्षु अष्टविकल्पा भवन्ति ।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ४ / २५ । " एते सारस्वतादयोऽष्टविधा देवा --- ।" वही ४ / २६
९७. "लोकान्तवर्तिनः एतेऽष्टभेदाः सूरिणोपात्ताः, रिष्ठविमानप्रस्तारवर्तिभिर्नवधा भवन्तीत्यदोषः । आगमे तु नवधैवाधीता इति । " तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ४ / २६ ।
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