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३३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६/प्र०१ (सिद्धसेनगणी ने) अपनी टीका में कुछ ऐसा भी अभिप्राय व्यक्ति किया है कि जिसके आधार से विचार करने पर सूत्रकार से भाष्यकार भिन्न सिद्ध होते हैं। इसके लिए अध्याय आठ के "मत्यादीनाम्" सूत्र (८/७) की टीका देखनी चाहिए। यहाँ पर सिद्धसेनगणी के सामने यह प्रश्न है कि जब अन्य आचार्य "मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानाम्" सूत्र मानते हैं, तब सूत्र का वास्तविक रूप "मत्यादीनाम्" माना जाय या अन्य आचार्य जिस प्रकार उसका पाठ पढ़ते हैं, वैसा माना जाय। इस शंका का समाधान करते हुए पहले तो उन्होंने हेतुओं का आश्रय लिया है, किन्तु इतने मात्र से स्वयं संतोष होता न देख वे कहते हैं कि 'यतः भाष्यकार ने भी इस सूत्र का इसी प्रकार अर्थ किया है, अतः "मत्यादीनाम्" ही सूत्र होना चाहिए।' उनका समस्त प्रसंग को प्रकट करनेवाला टीकावचन इस प्रकार है
___ "अपरे तु प्रतिपदं पञ्चापि पठन्ति-मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलानामिति। एवं चापार्थकः पाठो लक्ष्यते यतोऽनन्तरसूत्रे पञ्चादिभेदा ज्ञानावरणादय इत्यवधृतमेव। निर्ज्ञाताश्च स्वरूपतः प्रथमाध्याये व्याख्यातत्वात्। अत आदिशब्द एव च युक्तः। भाष्यकारोऽप्येवमेव सूत्रार्थमावेदयते।" (तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ८/७/ पृ. १३३)।
"यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य 'भाष्यकारो---' इत्यादि वचन है। इस वचन में भाष्यकार का सम्बन्ध सीधा "मत्यादीनाम्" सूत्र की रचना के साथ स्थापित न कर उसके अर्थ के साथ स्थापित किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि यहाँ पर सिद्धसेनगणी सूत्रकार को भाष्यकार से भिन्न मान रहे हैं, अन्यथा वे किसी अपेक्षा से सूत्रकार और भाष्यकार में अभिन्नता स्थापित कर अपनी भाषा द्वारा इस प्रकार समर्थन करते, जिससे भाष्यकार से अभिन्न सूत्रकार ने ही "मत्यादीनाम्" सूत्र रचा है, इस बात का दृढ़ता के साथ समर्थन होता।
___ "जहाँ तक हमारा मत है इन पूर्वोक्त उल्लेखों के आधार से हम एक मात्र इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मूल तत्त्वार्थसूत्रकार और तत्त्वार्थभाष्यकार अभिन्न व्यक्ति हैं, इस विषय में सिद्धसेनगणी की स्थिति संशयापन्न रही है, क्योंकि कहीं वे तत्त्वार्थसूत्रकार
और तत्त्वार्थभाष्यकार को एक व्यक्ति मान लेते हैं और कहीं दो। इस स्थिति को देखते हुए मालूम ऐसा देता है कि सिद्धसेनगणी के काल तक तत्त्वार्थभाष्यकार ही मूल-तत्त्वार्थसूत्रकार हैं, यह मान्यता दृढमूल नहीं हो पायी थी। यही कारण है कि सिद्धसेनगणी किसी एक मत का निश्चयपूर्वक प्रतिपादन करने में असमर्थ रहे।" (स. सि./भा.ज्ञा./प्रस्ता./ पृ.६६)।
___ इस प्रकार सिद्धसेनगणी के पूर्वोद्धृत वचनों से सूत्रकार और भाष्यकार का एकत्व निश्चितरूप से सिद्ध नहीं होता, अतः मान्य संघवी जी का उपर्युक्त हेतु, हेतु न होकर हेत्वाभास है।
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