________________
अ०१६ / प्र०१
तत्त्वार्थसूत्र / ३२१ २.१५. 'औदारिकवैक्रिय---'
द्वितीय अध्याय के "औदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि" (त.सू. । श्वे./२/३७) इस सूत्र में औदारिक आदि पाँच शरीरों के नाम गिनाये गये हैं। इसके भाष्य में भी पाँच शरीरों के केवल नाम ही बतलाये गये हैं, उनकी व्याख्या नहीं की गई है। व्याख्या इसी अध्याय के "शुभं विशुद्धमव्याघति चाहारकं चतुर्दशपूर्वधरस्यैव" (त.सू./श्वे./२/४९) इस सूत्र के भाष्य में की गई है, जो अप्रासंगिक है।
"सिद्धसेनगणी ने भी इसे अप्रासंगिक मानते हुए शंका उठाई है-"यह भाष्य तो शरीरप्रकरणसम्बन्धी पूर्वसूत्र (२/३७) में युक्त होता। प्रकरण के अन्त में उसके कहने का किञ्चित् भी विशिष्ट प्रयोजन नहीं है।" इस शङ्का को उचित मानते हुए वे कहते हैं-"निश्चित ही प्रकरण के अन्त में इसके कहे जाने का कोई फल नहीं है, क्योंकि यह प्रस्तुत सूत्र का अर्थ नहीं है, अतः आचार्य की इस भूल को क्षमा करें।" १०४ (कैलाशचन्द्र शास्त्री/जै.सा.इ./भा.२ / २४४)।
जो विषय जिस सूत्र से सम्बद्ध है, उसकी व्याख्या उसी सूत्र के भाष्य में न कर अन्य सूत्र के भाष्य में करना एक ऐसी महान् विसंगति है, जिसकी अपेक्षा उस भाष्यकार से नहीं की जा सकती, जिसने सूत्ररचना भी स्वयं की हो। अतः स्पष्ट है कि भाष्य किसी ऐसे अन्य व्यक्ति की कृति है, जो सूत्रकार के समान सिद्धहस्त,
औचित्यदर्शी, स्मृतिशील और सावधान नहीं है। कुछ विसंगतियाँ प्रस्तुत ग्रन्थलेखक की दृष्टि में भी आयी हैं, जिनका निरूपण आगे किया जा रहा है२.१६. महाव्रत संवर के हेतु
"कायवाङ्मनःकर्म योगः" (६/१) तथा "हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्" (७/१) 'तत्त्वार्थसूत्र' के इन सूत्रों में महाव्रतों को शुभास्रव का हेतु बतलाया गया है। भाष्य में भी इस बात की पुष्टि की गई है। १०५ तथा संवर हेतुओं का वर्णन करने वाले "स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः" (९/२) सूत्र में महाव्रतों को शामिल न करके भी यह द्योतित किया गया है कि महाव्रत शुभास्रव के हेतु हैं,
१०४."ननु च शरीरप्रकरणप्रथमसूत्रे एतद् भाष्यं युक्तं स्यात्। इह तु प्रकरणान्ताभिधाने न
किञ्चित् प्रयोजनं वैशेषिकमस्तीति। उच्चते-तदेवमयं मन्यते, तदेवेदमादिसूत्रमाप्रकरणपरिसमाप्तेः प्रपञ्च्यते, अथवा प्रकरणान्ताभिधाने सत्यमेव न किञ्चित् फलमस्त्यसूत्रार्थत्वाद्
अतः क्षम्यतामिदमेकमाचार्यस्येति।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति २/४९ / पृ. २११ । १०५.क-"तत्राशुभो हिंसास्तेयाब्रह्मादीनि कायिकः, सावद्यानृतपरुषपिशुनादीनि वाचिकः,
अभिध्याव्यापादेासूयादीनि मानसः। अतो विपरीतः शुभ इति।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ६/१।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org