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अ०१६/प्र०१
तत्त्वार्थसूत्र / ३१३ करना सूत्रबन्ध के नियम के विरुद्ध है। इससे सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने सूत्र के आदि में 'इन्द्रिय' शब्द का विन्यास सूत्रबन्ध की शोभा के प्रयोजन से नहीं किया, बल्कि आस्रवभेदों में प्रथमतः उल्लेख्य होने के कारण ही किया है।
३. सूत्र या वाक्य में शब्दप्रयोगजन्य शोभा की उत्पत्ति अनुप्रास, यमक, श्लेष आदि शब्दालंकारों के प्रयोग से होती है। किन्तु उपर्युक्त सूत्र के आदि में 'इन्द्रिय' शब्द के विन्यास से किसी भी शब्दालंकार की उत्पत्ति नहीं हुई, अतः शब्दिक शोभा का रंचमात्र भी आविर्भाव नहीं हुआ है। यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि सूत्र के आदि में इन्द्रिय शब्द का सन्निवेश सूत्र रचना में शोभा उत्पन्न करने के लिए नहीं, अपितु आस्रवभेदों में प्रथम स्थान रखने के कारण हुआ है।
सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री गणी जी के समाधान को हास्यास्पद बतलाते हुए लिखते हैं-"---सूत्ररचना की शोभा के लिए 'इन्द्रिय' का आदि में सन्निवेश किया है, कैसा अच्छा समाधान है! सूत्रों की रचना सुन्दरता की दृष्टि से की जाती है, यह एक नयी खोज है। 'इन्द्रिय' की जगह 'अव्रत' रखने से सूत्र कैसे असुन्दर हो जाता, यह तो गणी जी ही बतला सकते हैं।" (जै.सा.इ. /द्वि.भा. / पृ. २४२)।
उक्त सूत्र में इन्द्रिय, कषाय, अव्रत और क्रिया, इन शब्दों के क्रमशः विन्यास का क्या प्रयोजन है, इसका संकेत तत्त्वार्थराजवार्तिक में उठाये गये एक प्रश्न से मिलता है। वह यह कि इन्द्रियों से ही ज्ञान करके विचार-विमर्श के बाद जीव कषाय, अव्रत और क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं,९३ अतः अव्रत की प्रवृत्ति में इन्द्रियादि निमित्त हैं, इसलिए उनका विन्यास उपर्युक्त क्रम से किया गया है।
इस प्रकार श्री सिद्धसेनगणी भाष्यकार द्वारा किये गये सूत्रक्रमोल्लंघन का औचित्य सिद्ध करने में सफल नहीं होते। सूत्र के आदि में 'इन्द्रिय' शब्द का ही सन्निवेश उचित है, इसीलिए सूत्रकार ने ऐसा ही किया है। अतः भाष्य में भी उसकी ही व्याख्या पहले होनी चाहिए थी। यदि सूत्रकार ही भाष्यकार होते, तो वे अनिवार्यतः ऐसा ही करते, क्योंकि जिस औचित्य के कारण उन्होंने सूत्र के आदि में 'इन्द्रिय' शब्द का विन्यास किया है, उस औचित्य का निर्वाह वे भाष्य में किये बिना नहीं रहते। अतः सिद्ध होता है कि भाष्यकार कोई अन्य व्यक्ति हैं, जिन्होंने सूत्रगत शब्दक्रम की परवाह न करते हुए अपनी जुदी चिन्तन प्रणाली के वशीभूत हो शब्दक्रम का उल्लंघन कर 'अव्रत' शब्द की व्याख्या पहले की है। ९३. "इन्द्रियैर्हि उपलभ्य विचार्य च कषायाव्रतक्रियासु प्रवर्तन्ते प्रजाः।" तत्त्वार्थराजवार्तिक /६/
५/१६/पृ.५११। ९४. "अव्रतस्येन्द्रियादिपरिणामाः प्रवृत्तिनिमित्तानि भवन्ति।" तत्त्वार्थराजवार्तिक ६/५/१८/पृ. ५११ ।
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