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३१४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६/प्र०१ डॉ० सागरमल जी का कथन है कि भाष्य लिखते समय सूत्रकार की भूल से यह क्रमोल्लंघन हो गया है अथवा लिपिकार की भूल इसका कारण है। अतः इससे यह सिद्ध नहीं होता कि भाष्य स्वोपज्ञ नहीं है। (जै.ध.या.स. / पृ. २८७)।
किन्तु इस प्रकार की भूल हुई होती, तो सिद्धसेनगणी उक्त क्रमोल्लंघन के औचित्य को अन्य प्रकार से सिद्ध करने की कोशिश न करते। वे भी इसे भाष्यकार या लिपिकार की भूल कहकर आसानी से सत्य पर परदा डाल सकते थे।
__ अपने कथन के समर्थन में डॉक्टर साहब ने एक यह तर्क दिया है कि कुन्दकुन्द ने आस्रव के हेतु चार बतलाये हैं : मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, जब कि उन्हीं की परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, श्लोकवार्तिक आदि में प्रमाद को शामिल कर पाँच कारण माने गये हैं। लेकिन इस संख्याभेद से ये लेखक भिन्न-भिन्न परम्परा के सिद्ध नहीं होते। इसी प्रकार सूत्र और भाष्य में क्रमोल्लंघन होने से कतभेद सिद्ध नहीं होता। (जै.ध.या.स./ पृ. २८७)।
किन्तु डॉक्टर साहब का यह तर्क उनकी ही मान्यता के विरुद्ध जाता है, क्योंकि उपर्युक्त भेद में कर्त्ताभेद तो सिद्ध है ही, अतः उक्त तर्क से सूत्र और भाष्य में कर्ताभेद की ही पुष्टि होती है।
उक्त क्रमोल्लंघनरूप असंगति भाष्य के स्वोपज्ञ होने की इतनी अधिक विरोधी है कि उसका परिहार करने के लिए आगे चलकर श्वेताम्बराचार्यों ने सूत्र के शब्दक्रम में भाष्य के अनुसार परिवर्तन कर दिया, अर्थात् 'इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः' के स्थान में 'अव्रतकषायेन्द्रियक्रियाः' पाठ कर दिया, जो अवैध है। (देखिए, 'सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र' ६/६ राजचन्द्र आश्रम, अगास / १९९२ ई०)। २.६. 'इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंश---' ___ 'सूत्र' और 'भाष्य' में तीसरी विसंगति का संकेत करते हुए मुख्तार जी अपने ग्रन्थ 'जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश' (पृ. १२८-१२९) में कहते हैं"इन्द्र-सामानिक-त्रायस्त्रिंश-पारिषद्यात्मरक्ष-लोकपालानीक-प्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिकाश्चैकशः" (त.सू. /श्वे.४/४) इस सूत्र में प्रत्येक देवनिकाय में देवों के दश भेद बतलाये गये हैं। भाष्यकार भी पहले यही निरूपित करते हैं-'एकैकशश्चैतेषु देवनिकायेषु देवा दशविधा भवन्ति।' (त.भाष्य ४/४)। किन्तु जब वे भेदों का वर्णन करते हैं तब निम्नलिखित ग्यारह भेद बतलाते हैं
"तद्यथा इन्द्राः सामानिकाः त्रायस्त्रिंशाः पारिषद्याः आत्मरक्षा: लोकपालाः अनीकानि अनीकाधिपतयः प्रकीर्णकाः आभियोग्याः किल्विषिकाश्चेति।" (तत्त्वा. भाष्य ४/४)
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