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अ० १६ / प्र० १
२.४. 'यथोक्तनिमित्तः' को हटाने का आरोप मिथ्या
डॉ॰ सागरमल जी ने आरोप लगाया है कि पूज्यपाद स्वामी ने भाष्य के आधार पर सूत्र में यथोक्तनिमित्त: के स्थान पर क्षयोपशमनिमित्तः पाठ कर दिया है । (जै.ध. या.स./ पृ. २८५)। किन्तु यह आरोप युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होता, क्योंकि यदि उन्हें संशोधन करना होता, तो वे दिगम्बरपरम्परा के प्राचीन ग्रन्थ षट्खण्डागम के आधार पर अधिक स्पष्टार्थबोधक गुणप्रत्यय नाम ही उसके स्थान में रखते । ९° सर्वार्थसिद्धि टीका में उन्होंने षट्खण्डागम का प्रचुर उपयोग किया भी है। स्वयं डॉ० सागरमल जी गुणप्रत्यय नाम को अधिक उपयुक्त मानते हैं । ९१ पूज्यपाद स्वामी ने विरासत में प्राप्त इस नाम का प्रयोग नहीं किया। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने मूल सूत्र में कोई परिवर्तन नहीं किया। उन्हें ' क्षयोपशमनिमित्तः षड्वि कल्पः शेषाणाम्' यही पाठ प्राप्त हुआ था । भाष्यकार को जो 'यथोक्तनिमित: ' - वाला पाठ मिला था, उसने अवश्य उनके सामने विसंगतिजन्य समस्या खड़ी कर दी थी। इसलिए उन्होंने ही सर्वार्थसिद्धि के आधार पर ‘यथोक्त-निमित्तः क्षयोपशमनिमित्त इत्यर्थः ' (त. भाष्य / १/२३), ऐसी व्याख्या कर संगति बिठाने की चेष्टा की है। और इस चेष्टा तथा हरिभद्रसूरि के उपर्युक्त वचनों से स्पष्ट है कि यथोक्तनिमित्तः पाठ अत्यन्त अस्पष्ट और असंगत है। अतः उक्त सूत्र के कर्त्ता भाष्यकार नहीं हो सकते। यदि वे होते, तो सूत्र में यथोक्तनिमित्तः विशेषण का प्रयोग कर उपर्युक्त विसंगति उत्पन्न न करते । वे उसके स्थान में 'क्षयोपशमनिमित्तः ' विशेषण प्रयुक्त करते, जिससे भाष्य में उसके स्पष्टीकरण की आवश्यकता न रहती । डॉ॰ सागरमल जी ने भी यथोक्तनिमित्तः की अपेक्षा क्षयोपशमनिमित्तः पाठ को अधिक स्पष्ट माना है। वे लिखते हैं- "पुनः सर्वार्थसिद्धि में सुधरा हुआ अधिक स्पष्ट पाठ होना यही सूचित करता है कि वह भाष्य से परवर्ती है ।" (जै. ध. या.स./ ./ पृ. २८५) । किन्तु उक्त पाठ को सुधरा हुआ मानने का उनके पास कोई प्रमाण नहीं है, यह उनकी स्वबुद्धिप्रसूत कल्पना है । पूर्वोक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि उक्त पाठ न तो सुधरा हुआ है, न ही सर्वार्थसिद्धि भाष्य से परवर्ती है।
२.५. 'इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः
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तत्त्वार्थसूत्र / ३११
मुख्तार जी ने सूत्र और भाष्य में दूसरी विसंगति 'जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश' में इस प्रकार बतलायी है - "इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः पञ्चचतुः पञ्चविंशतिसङ्ख्याः पूर्वस्य भेदाः " (त. सू. / ६ / ५) इस सूत्र के दिगम्बरमान्य और
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९०. “तं च ओहिणाणं दुविहं भवपच्चइयं चेव गुणपच्चइयं चेव । " ष. खं./पु.१३/५,५,५३/ पृ. २८० ।
९१. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ. २८५ ।
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