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अ० १३ / प्र०१
भगवती-आराधना / ४५ होता है। उसके बाद क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होने के लिए अप्रमत्तगुणस्थान में अधःप्रवृत्तकरण करता है।"
इस कथन से स्पष्ट होता है कि चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में केवल दर्शनमोहनीय की उक्त तीन प्रकृतियों और चारित्रमोहनीय की अनन्तानुबन्धी क्रोधादि चार प्रकृतियों का क्षय हो सकता है, अन्य किसी भी प्रकृति का नहीं। चारित्रमोहनीय की २१ प्रकृतियाँ और शेष सात कर्मों की सभी प्रकृतियाँ विद्यमान रहती हैं। इससे भी सिद्ध है कि गुणस्थानसिद्धान्त के अनुसार गृहिलिंगी एवं अन्यलिंगी की मुक्ति नहीं हो सकती। इसके अतिरिक्त यहाँ केवल साधु को ही अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती एवं क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होने का अभिलाषी कहा गया है, आर्यिका को नहीं। आचारांग और कल्पसूत्र आदि श्वेताम्बर आगमों में तो भिक्खु के साथ भिक्खुणी८ और निर्ग्रन्थ के साथ निर्ग्रन्थी ९ दोनों का उल्लेख करके ही समान आचारनियमों के पालन का उपदेश दिया गया है। भगवती-आराधना के उपर्युक्त प्रसंग में तथा अन्यत्र ऐसा नहीं किया गया है। इससे स्पष्ट है कि भगवतीआराधनाकार को स्त्रीमुक्ति मान्य नहीं है। इस तरह गुणस्थानसिद्धान्त स्त्रीमुक्ति का भी निषेधक है।
आगे के गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के क्षय का क्रम बतलाते हुए भगवतीआराधनाकार कहते हैं
:: अध खवयसेढिमधिगम्म कुणइ साधू अपुव्वकरणं सो।
होइ तमपुव्वकरणं कयाइ अप्पत्तपुव्वंति॥ २०८७॥ अणिवित्तिकरणणामं णवमं गुणठाणयं च अधिगम्म। णिहाणिद्दा पयलापयला तध थीणगिद्धिं च॥ २०८८॥ णिरयगदियाणुपुट्विं णिरयगदिं थावरं च सुहमं च। साधारणादवुज्जोवतिरयगदिं
आणुपुव्वीए॥ २०८९॥ इग-विग-तिग-चतुरिंदियणामाई तध तिरिक्खगदिणामं। खवयित्ता मज्झिल्ले खवेदि सो अट्ठवि कसाए॥ २०९०॥
४७. क्षायिकसम्यग्दृष्टिभूत्वा क्षपकश्रेण्यधिरोहणाभिमुखोऽधःप्रवृत्तकरणमप्रमत्तस्थाने प्रतिपद्य---।" _ विजयोदयाटीका / भ.आ./ गा.२०८६ । ४८. “से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं जाव---" आचारांग २/१/१ / २-९। ४९. "वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा ।" कल्पसूत्र । सूत्र
२६२-२८९।
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