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२७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६ / प्र०१ बतलाना न तो आगम-सम्मत है, न लोकसम्मत। यतः याचना लोभकषायजन्य भाव है तथा वह साधु को दीन एवं लज्जाहीन बना देती है, अतः किसी भी वस्तु की याचना का भाव मन में न आने देना ही याचनापरीषहजय है। तत्त्वार्थसूत्र में निर्जरा के लिए इस प्रकार के याचनापरीषहजय की आवश्यकता का प्रतिपादन सवस्त्रमुक्ति के सर्वथा विरुद्ध है, अतः वह दिगम्बरचार्य की कृति है। इसके विपरीत तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के कर्ता सवस्त्रमुक्ति के प्रतिपादक हैं। इससे स्पष्ट है कि दोनों के सम्प्रदाय भिन्नभिन्न हैं। १.४. सूत्र में स्त्रीमुक्तिनिषेध ___भाष्यकार ने भाष्य में स्त्रीमुक्ति तथा स्त्री के तीर्थंकरी होने का प्रतिपादन किया है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र के सवस्त्रमुक्तिनिषेधक प्रमाणों से स्त्रीमुक्ति का भी निषेध होता है, क्योंकि स्त्री शारीरिक संरचनाविशेष के कारण वस्त्रत्याग नहीं कर सकती। इसके अतिरिक्त भी तत्त्वार्थसूत्र में स्त्रीमुक्तिविरोधी अनेक प्रमाण उपलब्ध होते हैं। यथा
१.पूज्यपाद स्वामी ने कहा है कि 'बादरसाम्पराये सर्वे' (त.सू./९/१२) सूत्र से केवल नौवाँ गुणस्थान अर्थ नहीं लेना चाहिए , अपितु सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान से नीचे के बादर-(स्थूल)-कषायवाले छठे से नौवें तक चारों गुणस्थान ग्राह्य हैं। किन्तु इन चारों में समानरूप से सभी परीषह नहीं होते। दर्शनमोहनीय की सम्यक्त्वप्रकृति का उदय छठे और सातवें गुणस्थानों में केवल क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियों में ही होता है, अतः दर्शनमोहनीय के उदय से होनेवाला अदर्शनपरीषह प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत में ही संभव है। अतः इन दो गुणस्थानों में सभी परीषहों का कथन युक्तिसंगत है। किन्तु आठवें गुणस्थान से उपशम और क्षपक श्रेणियाँ आरंभ होती हैं। उनमें से उपशमश्रेणी पर तो द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि एवं क्षायिकसम्यग्दृष्टि दोनों आरूढ़ होते हैं किन्तु क्षपकश्रेणी पर केवल क्षायिसम्यग्दृष्टि आरोहण करता है। अतः आठवें और नौवें गुणस्थानों में दर्शनमोहनीय का उदय न होने से अदर्शनपरीषह संभव नहीं है। इसलिए उनमें केवल इक्कीस परीषहों का उल्लेख युक्तिसंगत है। तथापि अदर्शनपरीषह को गौण कर बादरकषाय
४७. क- "स्त्रीलिङ्गसिद्धाः संख्येयगुणाः।--- तीर्थकरतीर्थसिद्धाः स्त्रियः संख्येयगुणाः।"
तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/१०/७ / पृ.४५५ । ख– “एवं तीर्थकरीतीर्थे सिद्धा अपि।" वही/पृ. ४४९ । ४८. "नेदं गुणस्थानविशेषग्रहणम्। किं तर्हि? अर्थनिर्देशः। तेन प्रमत्तादीनां संयतानां ग्रहणम्।" ____सर्वार्थसिद्धि ९/१२/८४३/ पृ. ३३९ । ४९. पं. फूलचन्द्र जी शास्त्री : विशेषार्थ / सर्वार्थसिद्धि (भारतीय ज्ञानपीठ) ९/१२/पृ. ३३९ ।
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