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२९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६/प्र०१ समय तक क्षुधादि का दुःख होगा, उतने समय के लिए सुख का अन्त हो जायेगा। फिर कवलाहार कर लेने पर पुनः सुख का अनुभव होने लगेगा। इससे यह भी सिद्ध होगा कि केवली का सुख केवलज्ञानजन्य नहीं है, अपितु कवलाहारजन्य है। इस प्रकार केवली का केवलज्ञान अनन्त आनन्द का हेतु सिद्ध नहीं होगा। किन्तु उनका आनन्द अनन्त ही होता है, यह श्वेताम्बरों और दिगम्बरों दोनों को मान्य है, अतः सिद्ध है कि केवली को असातावेदनीय का उदय रहने पर भी क्षुधा, तृषा, दंशमशक, शीत, उष्ण आदि ग्यारह परीषहों में से कोई भी परीषह संभव नहीं है।
१.७.३. केवली में चर्यादि परीषहों का अभाव अन्य कारणों से भी-अनन्तसुख के स्वामी केवली भगवान् को असातावेदनीयजनित कोई भी परीषह नहीं होता। इसके अतिरिक्त अन्य कारणों से भी उनमें चर्यादि परीषह संभव नहीं हैं। यथा, भगवान् धरती से कुछ ऊपर आकाश में विहार करते हैं। वहाँ भी देव उनके चरणतल के नीचे स्वर्णकमलों की रचना करते जाते हैं। ९ अतः उनके चरणों में कंटक, तृण आदि चुभने का अवसर नहीं होता तथा अनन्तवीर्य प्रकट हो जाने से थकावट भी नहीं होती, इसलिए चर्या एवं तृणस्पर्श परीषह संभव नहीं हैं। दर्शनावरणीय कर्म का क्षय हो जाने से निद्राप्रकृति का उदय नहीं रहता, जिससे भगवान् सोते नहीं हैं, फलस्वरूप उन्हें शय्यापरीषह असंभव है। केवलज्ञान हो जाने पर कोई उन पर उपसर्ग नहीं कर सकता तथा चरमदेहधारी होने के कारण उनकी अकालमृत्यु नहीं होती, अतः वे वधपरीषह के भी पात्र नहीं हैं। केवली का शरीर परमौदारिक होता है, अतः जैसे उसमें सप्त धातुओं, मल-मूत्र और स्वेद आदि का अभाव होता है, वैसे ही उसमें मल का संचय भी नहीं होता, इसलिए वे मलपरीषह से. भी रहित होते हैं। इस तरह केवली भगवान् में असातावेदनीय-निमित्तक परीषह संभव ही नहीं हैं।
१.७.४. याचनापरीषह-निषेध से केवलिभुक्ति का निषेध-तत्त्वार्थसूत्रकार ने सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें गुणस्थान में और छद्मस्थवीतराग नामक ग्यारहवें एवं बारहवें गुणस्थानों में क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, प्रज्ञा और अज्ञान ये चौदह ही परीषह बतलाये हैं, याचना परीषह नहीं बतलाया।° क्षुधा की पीड़ा होने पर भोजन की याचना का भाव उत्पन्न होना
७९. देवागम-नभोयान-चामरादिविभूतयः।
मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ॥ १॥ आप्तमीमांसा। ८०. क-"सूक्ष्मसाम्परायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश।" त.सू. /९/१०। ख-"सूक्ष्मसम्परायसंयते छद्मस्थवीतरागसंयते च चतुर्दश परीषहा भवन्ति-क्षुत्पिपासाशी
तोष्णदंशमशकचर्याप्रज्ञाज्ञानालाभशय्यावधरोगतृणस्पर्शमलानि।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ९/१०।
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