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अ०१६ / प्र०१
तत्त्वार्थसूत्र / २९९ याचनापरीषह कहलाता है। उसे उत्पन्न न होने देना याचनापरीषहजय है। किन्तु उपर्युक्त गुणस्थानों में मोहनीय का अत्यन्त मन्दोदय एवं उदयाभाव हो जाने से.१ याचना का भाव उत्पन्न ही नहीं हो सकता, इसलिए वहाँ याचनापरीषह का अभाव बतलाया गया है। याचनाभाव की उत्पत्ति संभव न होने से सिद्ध है कि उपर्युक्त गुणस्थानों में मोह के मन्दोदय एवं उदयाभाव से क्षुधा की पीड़ा उत्पन्न नहीं होती। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रकार ने उक्त गुणस्थानों में याचनापरीषह का निषेध करके यह प्रतिपादित किया है कि वहाँ असातावेदनीय के उदय में भी मोह के मन्दोदय अथवा उदयाभाव के कारण क्षुधातृषा की पीड़ा का प्रादुर्भाव नहीं होता। इससे केवली में क्षुधा-तृषा की पीड़ा का अभाव स्वतः प्रतिपादित हो जाता है।
उक्त गुणस्थानों में याचनापरीषह के निषेध से तत्त्वार्थसूत्र का दिगम्बरग्रन्थ होना अनायास सिद्ध हो जाता है। कारण यह है कि श्वेताम्बराचार्यों ने तत्त्वार्थसूत्रकार के अभिप्राय के विपरीत भोजन की याचना करने को ही याचनापरीषहजय कहा है और आदेश दिया गया है कि भोजन की याचना अवश्य करनी चाहिए. ८२ अतः उपर्युक्त गुणस्थानों में क्षुधा-परीषह के उल्लेख से तत्रस्थ मुनियों के द्वारा आहारग्रहण किया जाना तभी सिद्ध होगा, जब वहाँ याचनापरीषह का अस्तित्व भी स्वीकार किया जाय। किन्तु तत्त्वार्थसूत्रकार ने उपर्युक्त गुणस्थानों में केवल चौदह परीषह बतलाकर याचनापरीषह का स्पष्टतः निषेध किया है। इससे सिद्ध है कि उन्होंने वहाँ क्षुधापरीषह का उल्लेख करते हुए भी आहार-ग्रहण का अभाव बतलाया है। इससे केवली के कवलाहार का अभाव स्वतः सिद्ध होता है और यह साबित होता है कि तत्त्वार्थसूत्र श्वेताम्बरग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है।
१.७.५. इच्छा, याचना तीव्रमोहोदय का कार्य-तत्त्वार्थसूत्रकार ने "चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः" (९ /१५) सूत्र में बतलाया है कि याचनापरीषह चारित्रमोह के उदय में होता है और "सूक्ष्मसाम्परायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश" (९ / १०) सूत्र में कहा है कि चारित्रमोह के मन्दोदय एवं उदयाभाव में याचनापरीषह की उत्पत्ति नहीं होती अर्थात् याचना का भाव (इच्छा) ही उत्पन्न नहीं होता। ‘याचना' (किसी वस्तु को दूसरे से माँगना) 'प्रार्थना' का पर्यायवाची है
८१. "आह युक्तं तावद्वीतरागच्छद्मस्थे मोहनीयाभावात् तत्कृतवक्ष्यमाणाष्टपरीषहाभावाच्चतुर्दश
नियमवचनम्। सूक्ष्मसाम्पराये तु मोहोदयसद्भावात् 'चतुर्दश' इति नियमो नोपपद्यत इति? तदयुक्तम्, सन्मात्रत्वात्। तत्र हि केवलो लोभसवलनकषायोदयः सोऽप्यतिसूक्ष्मः। ततो
वीतरागछद्मस्थ-कल्पत्वात् 'चतुर्दश' इति नियमस्तत्रापि युज्यते।" स. सि./९/१०। ८२. देखिए , पूर्व में शीर्षक १.३.१० 'दिन को रात बना देने का अद्भुत साहस।'
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