________________
अ०१६/प्र०१
तत्त्वार्थसूत्र / ३०५ "तथा क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल, ये ग्यारह परीषह वेदनीय कर्म के उदय में होते हैं। वेदनीय कर्म का उदय 'जिन' के भी होता है, इसलिए इनका सद्भाव वहाँ तक कहा है।
"इस प्रकार अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में सूत्रकार ने जो परीषहों का सद्भाव कहा है, उसमें उनकी दृष्टि कारण को ध्यान में रखकर विवेचन करने की रही है।" (स.सि./ भा.जा./प्रस्ता./पृ. ३०-३३)।
१.७.७. साम्प्रदायिकता का आरोप और उसका निराकरण-श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल संघवी ने सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद स्वामी पर साम्प्रदायिक अभिनिवेश से ग्रस्त होने का आरोप लगाते हुए लिखा है-"जिन बातों में रूढ़ श्वेताम्बरसम्प्रदाय के साथ दिगम्बरसम्प्रदाय का विरोध है, उन सभी बातों को सर्वार्थसिद्धि के प्रणेता ने सूत्रों में संशोधन करके या उनके अर्थ में खींचतान करके अथवा असंगत अध्याहार आदि करके दिगम्बरसम्प्रदाय की अनुकूलता की दृष्टि से चाहे जिस रीति से, सूत्रों में से उत्पन्न करके निकालने का साम्प्रदायिक प्रयत्न किया है। वैसा प्रयत्न भाष्य में कहीं दिखाई नहीं देता। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि सर्वार्थसिद्धि साम्प्रदायिक विरोध का वातावरण जम जाने के बाद आगे चलकर लिखी गई है और भाष्य इस विरोध के वातावरण से मुक्त है।" (त.सू./वि.स. / प्रस्ता./पृ. ६४)।
.. इसका उत्तर देते हुए सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं-"इस प्रकार अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में सूत्रकार ने जो परीषहों का सद्भाव कहा है, उसमें उनकी दृष्टि कारण को ध्यान में रखकर विवेचन करने की ही रही है और इसीलिए सर्वार्थसिद्धिकार आचार्य पूज्यपाद ने पहले सूत्रकार की दृष्टि से 'एकादश जिने' इस सूत्र का व्याख्यान किया है। अनन्तर जब उन्होंने देखा कि कुछ अन्य विद्वान् अन्य साधारण मनुष्यों के समान केवली के कारणपरक परीषहों के उल्लेख का विपर्यास करके भूख-प्यास आदि बाधाओं का ही प्रतिपादन करने लगे हैं, तो उन्होंने यह बतलाने के लिए कि केवली के कार्यरूप में ग्यारह परीषह नहीं होते, 'न सन्ति' पद का अध्याहार कर उस सूत्र से दूसरा अर्थ फलित किया है। इसमें न तो उनकी साम्प्रदायिक दृष्टि रही है और न ही उन्होंने तोड़-मरोड़कर उसका अर्थ किया है। साम्प्रदायिक दृष्टि तो उनकी है, जो उसे इस दृष्टिकोण से देखते हैं। आचार्यों में मतभेद हुए हैं, और हैं, पर सब मतभेदों को साम्प्रदायिक दृष्टि का सेहरा बाँधना कहाँ तक उचित है, यह समझने और अनुभव करने की बात है। आचार्य पूज्यपाद यदि साम्प्रदायिक दृष्टिकोण के होते, तो वे ऐसा प्रयत्न न कर सूत्र का ही कायाकल्प कर सकते थे। किन्तु उन्होंने अपनी स्थिति को बिल्कुल स्पष्ट रखा है। तत्त्वतः देखा
Jain Education Interational
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org