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अ०१६ / प्र०१
तत्त्वार्थसूत्र / २८९ ही परम्पराओं में इसके १६ ही कारण माने जाते रहे हैं, अतः इस उल्लेख को श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में एक साक्ष्य कहा जा सकता हैं।" (जै.ध.या.स./ पृ. २१५)।
इस कथन से दो बातें सिद्ध होती हैं। एक तो यह कि डॉक्टर साहब अपनी सुविधानुसार उसी बात को कहीं प्रक्षिप्त मान लेते हैं और कहीं मौलिक। दूसरी बात यह कि वे यहाँ स्वीकार करते हैं कि तीर्थंकरप्रकृति के बन्धक सोलह कारण दिगम्बरों में ही मान्य हैं, श्वेताम्बरों में नहीं। अतः तीर्थंकरप्रकृति के सोलह बन्धकारणों का कथन करनेवाले सूत्र के उल्लेख से तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरपरम्परा से ही सम्बद्ध सिद्ध होता है, श्वेताम्बरपरम्परा से नहीं, यह डॉक्टर साहब की उपर्युक्त स्वीकृति से स्वतः सिद्ध हो जाता है।
डाक्टर साहब लिखते हैं-"यह भी संभव है कि उमास्वाति की उच्च नागर शाखा प्रारम्भ में १६ कारण ही मानती हो।" (जै.ध.या.स./पृ. ३३१)। यहाँ 'यह भी संभव है' इन शब्दों से स्पष्ट है कि यह डॉक्टर साहब के अपने मन की कल्पना है, किसी प्रमाण से सिद्ध तथ्य नहीं है। अतः १६ कारणों को काल्पनिक आधार पर श्वेताम्बरपरम्परा में मान्य मानकर तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बरग्रन्थ मानना प्रामाणिक नहीं है। निष्कर्षतः यही सिद्ध होता है कि तीर्थंकरप्रकृति के बन्धक सोलह कारण दिगम्बरपरम्परा में ही मान्य हैं, अतः तत्त्वार्थसूत्र में सोलह कारणों का उल्लेख होना सिद्ध करता है कि वह दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र का सोलहकारण-प्रतिपादक-सूत्र सूत्रकार और भाष्यकार में सम्प्रदायभेद का उद्घाटन करता है। १.७. सूत्र में केवलिभुक्ति-निषेध
तत्त्वार्थसूत्र के 'एकादश जिने' (९/११) सूत्र में कहा गया है कि केवली भगवान् को वेदनीयकर्म के उदय से क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल ये ग्यारह परीषह होते हैं। इसके आधार पर श्वेताम्बर आचार्य
और विद्वान् यह दावा करते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र में केवली का कवलाहार ग्रहण करना स्वीकार किया गया है, अतः वह श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है।
किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादित सिद्धान्तों के अनुसार यह कथन युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होता, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र में केवली को क्षुधादिपरीषह होने का वर्णन तो है, किन्तु वे कवलाहार ग्रहण करते हैं, यह कहीं नहीं कहा गया है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार तो केवली को क्षुधादि की पीड़ा होती ही नहीं है, क्योंकि उसमें आर्त्तभाव की उत्पत्ति प्रमत्तसंयत-गुणस्थान तक ही बतलायी गयी है।६७ तथा तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार क्षयोपशमजन्य
६७. "तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम्।" त.सू./९/३४, "तदेतदातध्यानमविरतदेशविरतप्रम
त्तसंयतानामेव भवति।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ९/३५ ।
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