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२८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० १६ / प्र० १
उपभोगपरिभोगव्रत को शिक्षाव्रत निरूपित करनेवाला 'दिग्देशानर्थदण्डविरति --- (त.सू./ श्वे. /७/१६) सूत्र भी श्वेताम्बरमत के विरुद्ध है।
१.६. तीर्थंकरप्रकृति-बन्धक हेतुओं की सोलह संख्या श्वेताम्बरमत- विरुद्ध
तत्त्वार्थसूत्र (६/२४) में तीर्थंकरप्रकृति के बन्धहेतुओं की संख्या सोलह बतलायी गई है। दिगम्बरग्रंथ षट्खण्डागम में भी सोलह कारणों का ही निरूपण है । ६५ किन्तु श्वेताम्बर - आगम ज्ञातृधर्मकथांग में बीस कारण बतलाये गये हैं । ६५ तीर्थंकरप्रकृति के बन्धहेतुओं के विषय में तत्त्वार्थसूत्रकार द्वारा दिगम्बरग्रन्थ षट्खण्डागम का अनुसरण किये जाने से सिद्ध होता है कि वे दिगम्बरपरम्परा के अनुयायी हैं, जब कि भाष्यकार सवस्त्रमुक्ति और स्त्रीमुक्ति के समर्थक होने से श्वेताम्बरमतावलम्बी हैं। यह उन दोनों के सम्प्रदायभेद का एक अन्य प्रमाण है ।
सूत्रकार और भाष्यकार के सम्प्रदायों की भिन्नता का इतना स्पष्ट प्रमाण देखकर डॉक्टर सागरमल जी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये । उन्हें इस प्रमाण को झूठा सिद्ध करनेवाला कोई प्रतिपक्षी प्रमाण उपलब्ध नहीं हुआ । इसलिए उन्होंने अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। उनका ब्रह्मास्त्र है किसी भी अंश को प्रक्षिप्त घोषित कर देना। डॉक्टर साहब ने अपने मन से कल्पित कर लिया कि श्वेताम्बर - आगमों में भी पहले सोलह कारण ही मान्य रहे होंगे, किन्तु निर्युक्तिकाल में बीस कारण निर्धारित कर दिये गये। फिर उन बीस कारणों का उल्लेख करनेवाली निर्युक्ति की गाथाएँ किसी ने ज्ञातृधर्मकथा में प्रक्षिप्त कर दीं। (जै. ध. या.स./ पृ. ३३१) । इस तरह सोलह कारणों को मूल तथा बीस कारणों को बाद में विकसित और प्रक्षिप्त घोषित कर डॉक्टर सा० ने यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि तीर्थंकरप्रकृति के सोलह बन्धहेतुओं का उल्लेख करनेवाले सूत्र की उपलब्धि से तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरपरम्परा का सिद्ध नहीं होता, अपितु सोलह हेतुओं के उल्लेख से भी श्वेताम्बरपरम्परा का ही सिद्ध होता है ।
किन्तु जिस विमलसूरिकृत पउमचरिय को डॉक्टर साहब वीरनिर्वाण सं० ५३० ( विक्रम की दूसरी शताब्दी) की रचना मानते हैं६६ उसमें भी बीस कारणों का उल्लेख मिलता है। उन गाथाओं को उन्होंने प्रक्षिप्त नहीं माना है, अपितु मौलिक मानकर उनके आधार पर 'पउमचरिय' को श्वेताम्बर ग्रन्थ सिद्ध किया है । वे लिखते हैं-" पउमचरियं (२ / ८२) में तीर्थंकरनामकर्म - प्रकृति के बन्ध के बीस कारण माने हैं। यह मान्यता आवश्यक नियुक्ति और ज्ञातृधर्मकथा के समान ही है। दिगम्बर एवं यापनीय दोनों
६५. देखिये, अध्याय ११ / प्रकरण ४ / शीर्षक ५ । ६६. देखिये, जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ. २२० ।
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