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२९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६/प्र०१ कवलाहार, लेप्याहार, ओज-आहार और मानसिक आहार। ७३ तीर्थंकर या केवली के शरीर को शरीरस्थितिकारक नोकर्माहार प्राप्त होता है। नारकी जीवों का आहार पुद्गलकर्म है, क्योंकि नारकायु का उदय ही उनकी देह की स्थिति का कारण है। देव मानसिक आहार ग्रहण करते हैं। मनुष्य और पशु कवलाहारी होते हैं। पक्षियों के अण्डे ओज-आहार से और वनस्पति आदि एकेन्द्रिय जीव जलादिरूप लेप-आहार से जीवित रहते हैं।७४ पूज्यपाद स्वामी ने क्षायिकलाभ का उदाहरण देते हुए केवली के नोकर्माहार का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है
"लाभान्तरायस्याशेषस्य निरासात् परित्यक्तकवलाहारक्रियाणां केवलिनां यतः शरीरबलाधानहेतवोऽन्यमनुजासाधारणाः परमशुभाः सूक्ष्माः अनन्ताः प्रतिसमयं पुद्गलाः सम्बन्धमुपयान्ति स क्षायिको लाभः।" (स.सि./ २ / ४)।
अनुवाद-"समस्त लाभान्तरायकर्म का क्षय होने पर कवलाहाररहित केवलियों के साथ जिस योग्यता के कारण शरीर में शक्ति का संचार करनेवाले तथा सामान्य मनुष्यों के लिए दुर्लभ परमशुभ और सूक्ष्म अनन्त पुद्गल प्रतिसमय सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं, वह क्षायिकलाभ है।"
इस नोकर्माहार से केवलियों का शरीर आयुपर्यन्त स्थित रहता है तथा कुछ अधिक आठ वर्ष के केवली भगवान् का शरीर भी वृद्धि को प्राप्त होता है। अतः श्वेताम्बरपक्ष की ओर से कवलाहार के समर्थन में प्रस्तुत किया गया यह हेतु निरस्त हो जाता है कि भोजन के अभाव में केवली का शरीर नष्ट हो जायेगा और कुछ अधिक आठ वर्ष के केवली भगवान् सदा शैशवावस्था में ही रहे आयेंगे, क्योंकि उनके शरीर की वृद्धि नहीं हो पायेगी।
इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रकार ने विभिन्न सूत्रों के द्वारा केवलिभुक्ति का निषेध किया है। ७३. णोकम्म-कम्महारो कवलाहारो य लेप्पमाहारो।
ओज मणो वि य कमसो आहारो छव्विहोणेयो॥ ११०॥ णोकम्मं तित्थयरे कम्मं णारेय माणसो अमरे।
णरपसुकवलाहारो पंखी उज्जो णगे लेओ॥ १११॥ भावसंग्रह / देवसेनाचार्य। ७४. "न खलु कवलाहारेणैवाहारित्वं जीवानाम् , एकेन्द्रियाण्डजत्रिदशानामभुजानतिर्यग्मनुष्याणां
चानाहारित्वप्रसङ्गात्।" प्रमेयकमलमार्तण्ड/द्वि.भा./६ कवलाहार विचार/पृ. १८०। ७५. "एवं केवलिनोऽपि च शरीरिणो भुक्तिविरहिता 'देहे' शरीरे स्थितिभावं स्थैर्यं नैव लभन्ते,
शरीरात्पृथग् भवन्तीत्यर्थः, तथा वृद्धिं साधिकवर्षाष्टकः कश्चित् सञ्जातकेवलः तदवस्थ एव भवेत् , शैशवावस्थमेव स्यात्, 'पुद्गलैरेव पुद्गलोपचय' इति वचनात्, आहाराभावे (सचेतनस्य) तनोः शरीरस्य वृद्धरसम्भवादिति।" प्रवचनपरीक्षा/वृत्ति १/२/४८-४९ / पृ. १०६ ।
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