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२९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६ / प्र० १
है, इसलिए जैसे शक्कर के ढेर में नीम के कण का पता नहीं चलता, वैसे ही अनन्तगुणित सातावेदनीय के उदय में असातावदेनीय के उदय का अनुभव नहीं होता । और जैसे प्रमत्तसंयतादि मुनि वेदोदय के होने पर भी मोह के मन्दोदय के कारण अखण्ड ब्रह्मचारी ही रहते हैं, उन्हें स्त्रीपरीषह की बाधा नहीं होती तथा जैसे नवग्रैवेयक आदि के अहमिन्द्र वेदोदय के सद्भाव में भी मन्दमोहोदय के कारण स्त्रीबाधा से रहित होते हैं, वैसे ही केवली भगवन् असातावदेनीय के उदय में भी सम्पूर्ण मोहनीय का अभाव हो जाने से क्षुधाबाधा से मुक्त होते हैं।
पूर्वपक्ष - " आगम में आहारकमार्गणा के प्रकरण में कहा गया है कि मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर सयोगिकेवली पर्यन्त तेरह गुणस्थानों के जीव आहारक होते हैं। इससे सिद्ध होता है कि केवली आहार ग्रहण करते हैं।
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उत्तरपक्ष ' यह कथन भी उचित नहीं है । आगम में छह प्रकार के आहार बतलाये गये हैं
णोकम्म- कम्महारो कवलाहारो य लेप्पमाहारो । ओज मणो विय कमसो आहारो छव्विहो णेयो ॥
" इनमें से नोकर्माहार की अपेक्षा केवली को आहारक कहा गया है, कवलाहार की अपेक्षा नहीं। जिन परमाणुओं के ग्रहण से शरीर की स्थिति बनी रहती है, उनके ग्रहण को आहार कहते हैं। ऐसी आहारवर्गणा के परमाणुओं का शरीर में प्रवेश होना नोकर्म - आहार कहलाता है । केवली भगवान् के शरीर में प्रतिसमय सूक्ष्म, सुरस, सुगन्ध, अन्य मनुष्यों के लिए अलभ्य, तथा कवलाहार के बिना भी कुछ कम पूर्वकोटि पर्यन्त शरीर की स्थिति बनाये रखनेवाले, सप्तधातुरहित परमौदारिकशरीर के नोकर्माहारयोग्य पुद्गल लाभान्तरायकर्म के पूर्णक्षय के फलस्वरूप आस्रवित होते रहते हैं। इससे ज्ञात होता है कि नोकर्माहार की अपेक्षा ही केवली आहारक होते हैं।
पूर्वपक्ष - " चलिए मान लिया कि आपकी कल्पना के अनुसार केवली का आहारकत्व और अनाहारकत्व नोकर्माहार की अपेक्षा से है, कवलाहार की अपेक्षा से नहीं । किन्तु नोकर्माहार की अपेक्षा जीव को आहारक कहे जाने का प्रमाण क्या है?
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उत्तरपक्ष—“इसका प्रमाण है तत्त्वार्थसूत्र का " एकं द्वौ त्रीन्वानाहारकः " सूत्र । ( " एकं द्वौ त्रीन्वानाहारकः इति 'तत्त्वार्थे' कथितमास्ते । " - ता.वृ./प्र.सा. १ /२०/पृ. २५)। इस सूत्र में जीव को केवल विग्रहगति ( भवान्तरगमनकाल) में एक, दो या तीन समय
७६. “एकं द्वौ वाऽनाहारकः " तत्त्वार्थसूत्र / श्वेताम्बर / २ / ३१ ।
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