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२९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६ / प्र०१ भावेन्द्रियों का अभाव हो जाने से केवली को द्रव्येन्द्रियजन्य पीड़ा हो भी नहीं सकती। इसके अतिरिक्त घातिचतुष्टय का क्षय हो जाने से केवली अनन्तसुख की अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं, जिससे उन्हें क्षुधादि की पीड़ाएँ संभव नहीं हैं। क्षुधादिपीड़ा का संभव न होना इस बात से भी सिद्ध है कि केवली को अन्न-जल ग्रहण करने की इच्छा नहीं होती। अन्न-जल ग्रहण करने की इच्छा न होने का प्रमाण यह है कि केवली में इच्छा (लोभ, राग)६८ के जनक मोहनीयकर्म का अस्तित्व ही नहीं होता। उसका क्षय होने पर ही केवली-अवस्था प्राप्त होती है। इस तथ्य का निरूपण तत्त्वार्थसूत्रकार ने "मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्" (१०/१) सूत्र में किया है। कवलाहार ग्रहण न करने से केवली का अकालमरण भी नहीं हो सकता, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता ने चरमदेहधारियों की अकालमृत्यु का निषेध किया हैं"औपपादिकचरमोत्तमदेहासङ्ख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः" (२/५३)।६९
___ तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार मोहनीय के तीव्रोदय के बिना केवल असातावेदनीय के उदय से क्षुधादिपीड़ाएँ उत्पन्न नहीं होतीं, जैसे तीव्रमोहोदय के अभाव में केवल वेदकर्म के उदय से कामपीड़ा का प्रादुर्भाव नहीं होता। इसका प्रतिपादन तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता ने ‘परेऽप्रवीचाराः' (४/९) सूत्र द्वारा किया है। इसमें उन्होंने कहा है कि सोलहवें स्वर्ग से ऊपर के देवों में वेदकर्म का उदय होता है, तो भी उनमें मैथुनेच्छा उत्पन्न नहीं होती। इसका कारण यही है कि वहाँ मोहनीय का मन्दोदय होता है। इसी प्रकार उन्होंने नौवें गुणस्थान के सवेदभाग पर्यन्त वेदकर्म का उदय बतलाया, तथापि छठे गुणस्थान से लेकर नौवें गुणस्थान तक के मुनियों को प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत आदि शब्दों से अभिहित करते हुए ब्रह्मचर्य-महाव्रतधारी कहा है। इसका भी कारण यही है कि उक्त गुणस्थानों में मोहोदय की मन्दता के कारण वेदकषाय का उद्रेक नहीं होता।
"शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः"-त.सू./९/३७ (श्रुतकेवली को धर्मध्यान और आदि के दो शुक्लध्यान होते हैं) इस सूत्र के अनुसार पूज्यपादस्वामी ने श्रुतकेवलियों के श्रेण्यारोहण के पूर्व अर्थात् प्रमत्तसंयत एव अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में धर्मध्यान तथा
६८. "लोभो रागो गायमिच्छा मूर्छा स्नेहः काङ्क्षाभिष्वङ्ग इत्यनर्थान्तरम्।" तत्त्वार्थाधिगम
भाष्य।८/१०/ पृ. ३६३। ६९. इससे श्वेताम्बरपक्ष की यह शंका निर्मूल सिद्ध हो जाती है कि कवलाहार के अभाव में
केवली का शरीर नष्ट हो जायेगा-"एवं केवलिनोऽपि च शरीरिणो भुक्तिविरहिता 'देहे' शरीरे स्थितिभावं स्थैर्यं नैव लभन्ते, शरीरात्पृथग् भवन्तीत्यर्थः।" प्रवचनपरीक्षा १/२/ ४८-४९/ पृ.१०६।
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