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अ० १६ / प्र० १
तत्त्वार्थसूत्र / २८७
अपरिग्रह का लक्षण प्रतिपादित कर तत्त्वार्थसूत्रकार ने सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति एवं अन्यलिंगिमुक्ति, चारों का निषेध कर दिया है। इसके विपरीत भाष्यकार ने इन चारों की मुक्ति तथा स्त्री के तीर्थंकरी होने का कथन किया है। यह भी दोनों में गम्भीर सम्प्रदायभेद होने का प्रमाण है ।
डॉ० सागरमल जी का यह कथन समीचीन नहीं है कि 'मूर्च्छा परिग्रहः ' सूत्र में केवल भावपरिग्रह को परिग्रह माना गया है, द्रव्यपरिग्रह को नहीं। (जै.ध.या.स./ पृ. ३१५)। यतः परद्रव्य की इच्छा का नाम मूर्च्छा है और परद्रव्य की इच्छा होने पर ही बाह्य वस्तु ग्रहण की जाती है, अतः बाह्य वस्तु का ग्रहण मूर्च्छा के सद्भाव का लक्षण है । इस प्रकार भावपरिग्रह और द्रव्यपरिग्रह में कारणकार्य-सम्बन्ध होने से 'मूर्च्छा' शब्द भावपरिग्रह और द्रव्यपरिग्रह दोनों का सूचक है। इसकी पुष्टि इस बात
होती है कि सूत्रकार ने परिग्रहपरिमाण अणुव्रत के अतीचारों में क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास और कुप्य (वस्त्र एवं पात्र) इन बाह्य वस्तुओं के परिमाण का उल्लंघन करने को परिग्रह - परिमाण - अणुव्रत का अतीचार कहा है । (त. सू./ श्वे./७/२४)। भाष्यकार ने इसे ही इच्छापरिमाणव्रत का अतीचार बतलाया है। ६३ इससे स्पष्ट होता है कि इच्छा का परिमाण करने पर क्षेत्र, वास्तु आदि बाह्य परिग्रह का परिमाण होता है और इच्छापरिमाण का अतिक्रम करने पर क्षेत्रादि बाह्यपरिग्रह के परिमाण का अतिक्रम होता है। इस तरह सूत्रकार ने क्षेत्र, वास्तु आदि बाह्य वस्तुओं के परिमाण को अपरिग्रह अणुव्रत कहकर उनके सर्वथा परित्याग को अपरिग्रहमहाव्रत कहा है। इससे सिद्ध है कि सूत्रकार ने शब्दतः भी द्रव्यपरिग्रह को परिग्रह बतलाया है। तथा श्रावकों के लिए उपभोगपरिभोग- परिमाणव्रतरूप शिक्षाव्रत ६४ का विधान करके भी सूत्रकार ने द्रव्यपरिग्रह को परिग्रह निरूपित किया है। इसके अतिरिक्त नाग्न्यपरीषहजय, शीतोष्णदंशमशक परीषहजय तथा याचनापरीषहजय को संवर - निर्जरा का हेतु बतलाकर भी द्रव्यपरिग्रह को परिग्रह शब्द से द्योतित किया है। इससे सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने भावपरिग्रह और द्रव्यपरिग्रह दोनों को परिग्रह संज्ञा दी है। इतना ही नहीं नाग्न्यपरीषहजय को संवर और निर्जरा का हेतु कहकर अपरिग्रह महाव्रत के द्रव्यपक्ष की चरमसीमा भी स्पष्ट कर दी है। अतः 'मूर्च्छा परिग्रहः ' सूत्र दिगम्बरमत के ही अनुकूल है, श्वेताम्बरमत के नहीं । श्वेताम्बरमत के तो वह सर्वथा प्रतिकूल है। केवल वही नहीं, 'क्षेत्रवास्तुहिरण्य---' (त.सू. / श्वे. / ७ /२४) तथा
६३. " क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रमः --- इत्येते पञ्चेच्छापरिमाणव्रतस्यातिचारा भवन्ति ।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य / ७ / २४ |
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६४. “ दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकपौषधोपवासोपभोगपरिभोगातिथिसंविभागव्रतसम्पन्नश्च ।"
तत्त्वार्थसूत्र / श्वेताम्बर / ७ / १६ ।
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