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अ०१६ / प्र०१
तत्त्वार्थसूत्र / २८५ और प्रवर्तिनी (९/२४ / पृ. ४१९) शब्द प्रयुक्त हुए हैं। तीर्थंकरप्रकृति के बन्धहेतुओं का निर्देश करनेवाले सूत्र में तीर्थंकर शब्द का ही प्रयोग है तीर्थकरी का नहीं, जब कि भाष्यकार क्षेत्रकालगति इत्यादि (१०/७/ पृ.४४९) सूत्र के भाष्य में 'तीर्थकरी' शब्द प्रयुक्त करते हैं, यथा-'एवं तीर्थकरीतीर्थे सिद्धा अपि।'
इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र में अनगारधर्म के अन्तर्गत केवल पुरुष पर चरितार्थ होनेवाले व्रतनियमों का वर्णन किया जाना, स्त्री पर चरितार्थ होने वाले एक भी व्रतनियम का निर्देश न मिलना, यहाँ तक कि भिक्षुणी, निर्ग्रन्थी, श्रमणी और आर्यिका शब्द का भी ग्रन्थ में कहीं दिखाई न देना, इस बात के सबूत हैं कि ग्रन्थ स्त्रीमुक्तिविरोधी ग्रन्थकार की कृति है। इसके विपरीत भाष्य स्त्रीमुक्तिसमर्थक लेखनी से उद्भूत हुआ है। यह सूत्रकार और भाष्यकार के सम्प्रदायभेद का अन्यतम प्रमाण है। १.५. अपरिग्रह की परिभाषा वस्त्रपात्रादिग्रहण-विरोधी ___'मूर्छा परिग्रहः' सूत्रगत मूर्छा शब्द किसी एक अर्थ का वाचक नहीं है। यह लोभकषाय के बहुमुखी परिणमनों की अर्थपरम्परा को अपने गर्भ में समाये हुए है। दिगम्बर और श्वेताम्बर, दोनों परम्पराओं के प्राचीन ग्रन्थों में इसे अनेक अर्थों का वाचक बतलाया गया है। कसायपाहुड में इसके निम्नलिखित बीस अर्थ वर्णित हैं : काम, राग, निदान, छन्द, सुत या स्वत, प्रेय, दोष, स्नेह, अनुराग, आशा, इच्छा, मूर्छा, गृद्धि, साशता (शाश्वत), प्रार्थना, लालसा, अविरति, तृष्णा, विद्या और जिह्वा। (क.पा./ भाग १२/गा. ८९-९०/ पृ. १८९)।
श्वेताम्बर-आगम समवायांग के अनुसार 'मूर्छा' शब्द लोभ, इच्छा, मूर्छा, कांक्षा गृद्धि, तृष्णा, भिद्या, अभिद्या, कामाशा, भोगाशा, जीविताशा, मरणाशा, नन्दी और रागी का वाचक है। (समवाय ५२)।
तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के कर्ता ने भी कहा है कि इच्छा, प्रार्थना, काम, अभिलाष, कांक्षा, गाय॑ और मूर्छा ये एक ही अर्थ के सूचक हैं। ६२
आचार्य कुन्दकुन्द ने 'अपरिग्गहो अणिच्छो' (स.सा./गा. २१०) कहकर इच्छा को मूर्छा का लक्षण बतलाया है।
- पूज्यपाद स्वामी 'मूर्छा' शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं-"गाय, भैंस, मणि, मुक्ता आदि चेतन-अचेतन बाह्य पदार्थों के तथा रागादिभावरूप अभ्यन्तर उपधियों के संरक्षण, अर्जन, संस्कार आदि कार्यों का नाम मूर्छा है।" (स.सि./७/१७)। वे ६२. "इच्छा प्रार्थना कामोऽभिलाषः काङ्क्षा गाद्ध्यं मूर्छत्यनर्थान्तरम्।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य
७/१२।
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