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२८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६/प्र०१ है। इसलिए श्री हरिभद्रसूरि का यह कथन आगमसम्मत नहीं है कि क्षपकश्रेणी का विशिष्ट परिणाम उत्पन्न होते ही स्त्रियों को चौदह पूर्वो के अर्थ का बोध हो जाता है। तात्पर्य यह कि स्त्रियों को चौदहपूर्वो का न तो शब्दबोध संभव है, न अर्थबोध, अतः शुक्लध्यान भी संभव नहीं है। फलस्वरूप तत्त्वार्थसूत्र का 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः' सूत्र स्त्रीमुक्ति का निषेधक है।
ग-और जो कहा गया है कि स्त्री को केवलज्ञान होता है और केवलज्ञान चतुर्दशपूर्वो के ज्ञान के बिना संभव नहीं है तथा स्त्री को द्वादशांग-आगम के अध्ययन का निषेध है, अतः अन्यथानुपपत्ति से सिद्ध होता है कि स्त्री को द्वादशांग-अध्ययन के बिना ही चतुर्दशपूर्वो का अर्थबोध हो जाता है, यह अन्यथानुपपत्तिजन्य निष्कर्ष श्वेताम्बर-आगमों में तो उपपन्न हो जाता है, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में नहीं होता, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र में स्त्री को केवलज्ञान होने का कहीं भी उल्लेख नहीं है। अतः तत्त्वार्थसूत्र में उसकी उपपत्ति के लिए स्त्री में चतुर्दशपूर्त के ज्ञान को येन केन प्रकारेण उपपादित करने की आवश्यकता नहीं है।
श्री हरिभद्रसूरि ने तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बराचार्यकृत मानकर उसमें स्त्री को केवलज्ञान-प्राप्ति की मान्यता अपने मन से आरोपित कर दी है और स्त्री में चतुर्दशपूर्वो का ज्ञान उपपादित करने के लिए उपर्युक्त अन्यथानुपपत्ति का आश्रय लिया है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में स्त्री को केवलज्ञानप्राप्ति के उल्लेख का अभाव सिद्ध करता है कि सूत्रकार को यह विचार मान्य नहीं है कि स्त्री को द्वादशांग-आगम का अध्ययन किये बिना ही चतुर्दशपूर्वो के अर्थ का अवबोध हो जाता है। इससे सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्र का 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः' सूत्र स्त्रीमुक्ति के निषेध का महत्त्वपूर्ण प्रमाण है।
घ-तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित बाईस परीषहों में स्त्रीपरीषह का उल्लेख भी यह सिद्ध करता है कि सूत्रकार केवल पुरुषमुक्ति के पक्षधर हैं, उन्हें स्त्रीमुक्ति अमान्य है। यदि उन्हें स्त्रीमुक्ति मान्य होती, तो स्त्रीपरीषह के समकक्ष पुरुषपरीषह का भी उल्लेख करते। डॉ० दरबारीलाल जी कोठिया ने भी तत्त्वार्थसूत्र के स्त्रीमुक्तिविरोधी होने के पक्ष में यह तर्क प्रस्तुत किया है, जिस पर आक्षेप करते हुए डॉ० सागरमल जी लिखते हैं"यह भारतीय संस्कृति का सर्वमान्य तथ्य है कि सारे उपदेश-ग्रन्थ एवं नियम-ग्रन्थ पुरुष को प्रधान करके ही लिखे गये हैं, किन्तु इससे स्त्री की उपेक्षा या अयोग्यता सिद्ध नहीं होती है। समन्तभद्र आदि दिगम्बर आचार्यों ने 'श्रावकाचार' लिखे हैं तथा चतुर्थ अणुव्रत को स्वदारसन्तोषव्रत कहा है एवं उस सम्बन्ध में सारे उपदेश एवं नियम पुरुष को लक्ष्य करके ही कहे, तो इससे क्या यह मान लिया जाये कि उन्हें स्त्री का व्रतधारी श्राविका होना भी स्वीकार्य नहीं?" (जै.ध.या.स./पृ.३४७-३४८)।
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