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२८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६ / प्र०१ किन्तु श्वेताम्बराचार्यों ने तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बरसम्प्रदाय के ढाँचे में बैठाने के लिए स्त्री को अध्ययन के बिना ही पूर्वो का ज्ञान हो जाने की कल्पना की है। श्री हरिभद्रसूरि ललितविस्तरा में कहते हैं-"(स्त्रीवेदादिमोहनीय कर्म का क्षय हो जाने से) क्षपकश्रेणी का विशिष्ट परिणाम उत्पन्न होने पर श्रुतज्ञानावरण का विशिष्ट क्षयोपशम होता है, जिससे द्वादशांग के अर्थ का बोधात्मक उपयोग प्रकट हो जाता है, तब अर्थोपयोग रूप से द्वादशांग की सत्ता आ जाती है।" ५३
___ इसके पञ्जिका-टीकाकार मुनि चन्द्रसूरीश्वर जी लिखते हैं-"बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' में विद्यमान 'पूर्व' नाम के श्रुत का ज्ञान न हो, तो आदि के दो शुक्ल ध्यान नहीं हो सकते और शास्त्र यह भी कहता है कि स्त्रियों को दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध है। किन्तु स्त्रियों को केवलज्ञान तो होता ही है, अतः उसका साधनभूत शुक्लध्यान भी होता है। इसलिए यह मानना दुर्वार है कि शब्दरूप से अध्ययन के अभाव में भी धर्मध्यान के आधार पर वे अपकश्रेणी के विशिष्ट परिणाम तक पहुँच जाती हैं और वहाँ श्रुतज्ञानावरणकर्म का ऐसा क्षयोपशम हो जाता है, जिससे शब्दतः न सही, पदार्थबोधरूप से द्वादशांगश्रुत की प्राप्ति हो जाती है। ऐसा मानने में कोई दोष नहीं है।" ५४ किन्तु ऐसा मानने में अनेक दोष हैं, उदाहरणार्थ
क-यदि क्षपकश्रेणी का विशिष्ट परिणाम होने पर श्रुतज्ञानावरण के विशिष्ट क्षयोपशम से स्त्री को शाब्दिक ज्ञान हुए बिना द्वादशांग का अर्थबोध हो जाता है, तो पुरुष के लिए भी द्वादशांग के अध्ययन की अनिवार्यता असिद्ध हो जाती है, क्योंकि उसे भी इसी प्रकार अध्ययन के बिना ही द्वादशांग का अर्थावगम हो सकता है। इससे द्वादशांग का शब्दरूप में अस्तित्व और अध्ययन-अध्यापन निरर्थक होने का प्रसंग आता है। किन्तु वह निरर्थक नहीं माना जा सकता, अन्यथा भगवान् उसे दिव्यध्वनि द्वारा
५३. "(द्वादशाङ्गवत् कैवल्यस्य कथं न बाधः?) कथं द्वादशाङ्गप्रतिषेधः? तथाविधविग्रहे ततो
दोषात्। श्रेणिपरिणतौ तु कालगर्भवद् भावतो भावोऽविरुद्ध एव।" ललितविस्तरा/स्त्रीमुक्ति।
गाथा ३/पृष्ठ ४०६। ५४. "श्रेणिपरिणतौ तु = क्षपकश्रेणिपरिणामे पुनः वेदमोहनीयक्षयोत्तरकालं, 'कालगर्भवत्' काले =
प्रौढे ऋतुप्रवृत्त्युचिते उदरसत्त्व इव, 'भावतो'= द्वादशाङ्गार्थोपयोगरूपात् न तु शब्दतोऽपि, 'भावः'= सत्ता द्वादशाङ्गस्य, अविरुद्धो = न दोषवान्। इदमत्र हृदयम्-अस्ति हि स्त्रीणामपि प्रकृतयुक्त्या केवलप्राप्तिः, शुक्लध्यानसाध्यं च तत् , 'ध्यानान्तरिकायां शुक्लध्यानाद्यभेदद्वयावसान उत्तरभेदद्वयानारम्भरूपायां वर्तमानस्य केवलमुत्पद्यते' इति वचनप्रमाण्यात्। न च पूर्वगतमन्तरेण शुक्लध्यानाद्यभेदौ स्तः 'आद्ये पूर्वविदः' (तत्त्वार्थसूत्र/९/३९) इति वचनात् , 'दृष्टिवादश्च न स्त्रीणामितिवचनात्, अतस्तदर्थोपयोगरूपः क्षपकश्रेणिपरिणतौ स्त्रीणां द्वादशाङ्गभावः क्षयोपशमविशेषादुपदिष्ट इति। पञ्जिकाटीका/ललितविस्तरा/पृष्ठ ४०६।
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