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२४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१५/प्र०२ "जैन आगम-साहित्य पर सर्वप्रथम प्राकृतभाषा में जो पद्यबद्ध टीकाएँ लिखी गईं, वे नियुक्तियों के नाम से विश्रुत हैं। नियुक्तियों में मूलग्रन्थ के प्रत्येक पद पर व्याख्या न कर मुख्यरूप से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की है। नियुक्तियों की व्याख्याशैली निक्षेपपद्धति है। निक्षेपपद्धति में किसी एक पद के संभावित अनेक अर्थ करने के पश्चात् उनमें से अप्रस्तुत अर्थों का निषेधकर प्रस्तुत अर्थ को ग्रहण किया जाता है। यह पद्धति जैन न्यायशास्त्र में बहुत ही प्रिय रही है। भद्रबाहु ने प्रस्तुत पद्धति नियुक्ति के लिए उपयुक्त मानी है। वे लिखते हैं-"एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, किन्तु कौन-सा अर्थ किस प्रसंग के लिए उपयुक्त है, श्रमण भगवान् महावीर के उपदेश के समय कौन-सा अर्थ किस शब्द से सम्बद्ध रहा है, प्रभृति सभी बातों को दृष्टि में रखते हुए, सही दृष्टि से अर्थ निर्णय करना और उस अर्थ का मूलसूत्र के शब्दों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना नियुक्ति का प्रयोजन है। (आवश्यकनियुक्ति/ गाथा ८८)। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो सूत्र और अर्थ का निश्चित सम्बन्ध बतलानेवाली व्याख्या को नियुक्ति कहते हैं- "सूत्रार्थयोः परस्परं निर्योजनं सम्बन्धनं नियुक्तिः" (आवश्यकनियुक्ति / गाथा ८३)। अथवा निश्चय से अर्थ का प्रतिपादन करनेवाली युक्ति को नियुक्ति कहते हैं- "निश्चयेन अर्थप्रतिपादिका युक्तिर्नियुक्तिः।" (आचारांगनियुक्ति १/२/१)।
श्री देवेन्द्र मुनि जी आगे लिखते हैं-"जिस प्रकार यास्क महर्षि ने वैदिक पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या के लिए निघण्टु भाष्यरूप निरुक्त लिखा है, उसी प्रकार
जैन पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या के लिए आचार्य भद्रबाहु ने नियुक्तियाँ लिखी हैं।"५१ इस प्रकार श्वेताम्बरसाहित्य के अनुसार पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या को नियुक्ति कहते हैं।
किन्तु मूलाचार में सम्पूर्ण उपाय, विधि या शास्त्र को नियुक्ति कहा गया है। यथा
ण वसो अवसो अवसस्स-कम्ममावस्सयं ति बोधव्वा।
जुत्ति त्ति उवायत्ति णिरवयवा होदि णिज्जुत्ती॥ ५१५॥ अनुवाद-"जो पापादि के वश में नहीं है, उस मुनि को अवश कहते हैं। उस अवश मुनि की क्रिया आवश्यक कहलाती है। युक्ति का अर्थ उपाय है और निरवयव अर्थात् सम्पूर्ण (अखण्डित) युक्ति या उपाय का नाम नियुक्ति है।"
५०. वही / पृ. ४३५-४३६ । ५१. वही / पृ. ४३७।
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