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अ०१६ / प्र०१
तत्त्वार्थसूत्र / २७१ किन्तु तत्त्वार्थसूत्र (९/८) में स्पष्ट कहा गया है कि "मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः" अर्थात् मोक्षमार्ग से च्युत न होने तथा कर्मों की निर्जरा के लिए परीषहों को सहन करना चाहिए। इस सूत्र में 'परिषोढव्याः' (सहन करना चाहिए) शब्द का प्रयोग स्पष्ट कर देता है कि तत्त्वार्थसूत्रकार निर्जरा के लिए परीषहसहन अनिवार्य मानते हैं। यह सूत्र 'तत्त्वार्थसूत्र' के श्वेताम्बरमान्य पाठ में भी है। इससे सिद्ध होता है कि सूत्रकार और भाष्यकार में गम्भीर मतभेद है।
१.३.७. तत्त्वार्थसूत्र में उपचारनाग्न्य मान्य नहीं-वस्त्रधारण से नाग्न्यपरीषह और शीतादिपरीषहों का निवारण हो जाने पर सहने के लिए नाग्न्याश्रित परीषह कोई बचता ही नहीं है। फलस्वरूप परीषहसूत्र में शीत, ऊष्ण, दंशमशक और नाग्न्य परीषहों का समावेश सवस्त्रमुक्ति की दृष्टि से निरर्थक सिद्ध होता है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्रकार जैसे यशस्वी आचार्य निरर्थक कथन नहीं कर सकते। इससे सिद्ध होता है कि वे नग्नमुद्रा को ही मुक्ति का साधन मानते हैं।
किन्तु , तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बरग्रन्थ सिद्ध करने के लिए श्वेताम्बराचार्यों ने नाग्न्यपरीषहजय की नयी परिभाषा कल्पित कर यह साबित करने की कोशिश की है कि सवस्त्रमुक्ति की दृष्टि से भी नाग्न्यपरीषहजय का उल्लेख सार्थक है। उनका कहना है कि आगम में सचेलसाधु को भी अचेल या नग्न कहा गया है, लोक में भी सवस्त्र स्त्री-पुरुष के लिए 'नग्न' शब्द का प्रयोग रूढ़ है। अथवा अचेलत्व या नाग्न्य दो प्रकार का होता है : मुख्य और उपचरित। निर्वस्त्र होना मुख्य नाग्न्य है
और जीर्णशीर्ण वस्त्र पहनना उपचरित नाग्न्य है। तीर्थंकर निर्वस्त्र होते हैं, अतः मुख्यतः नग्न कहलाते हैं और सामान्य साधु जीर्ण वस्त्रधारण करते हैं, इसलिए उपचार से नग्न कहे जाते हैं।३६ श्वेताम्बराचार्यों का कथन है कि तत्त्वार्थसूत्र में नाग्न्यपरीषह के
३६. क- देखिए, अध्याय ३/प्रकरण २/शीर्षक ३.२.४ । ख- तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के वृत्तिकार श्री सिद्धसेनगणी (७ वीं शती ई०) एवं श्री हरिभद्रसूरि
(८वीं शती ई०) ने भी विशेषावश्यकभाष्यकार श्री जिनभद्रगणी (६वीं-७वीं शती ई०) का अनुसरण कर कटिवस्त्र को सिर पर लपेटकर नदी पार करते हुए पुरुष एवं जुलाहे से शीघ्र नई साड़ी बुनकर देने का आग्रह करनेवाली छिद्रयुक्तसाड़ीधारी स्त्री के दृष्टान्तों द्वारा यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने लोकरूढ़ि या उपचार से सचेल साधु के लिए नग्न शब्द का प्रयोग किया है। अतः नाग्न्यपरीषह का अर्थ है सचेलसाधु के लिए संभव अनेषणीयचेलग्रहण-परीषह। इसलिए अनेषणीय चेल ग्रहण न कर एषणीय चेल ग्रहण करना नाग्न्यपरीषहजय है। (देखिये , सिद्धसेनगणीकृत तत्त्वार्थाधिगमभाष्यवृत्ति ९/९/ पृ.२२६ एवं हरिभद्रसूरिकृत तत्त्वार्थसूत्रवृत्ति /९/९)।
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