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अ०१६ /प्र०१
तत्त्वार्थसूत्र / २६३ कम होती है। इससे सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्रकार की दृष्टि से गृहिलिंगी की मुक्ति सम्भव नहीं है। यह भी सूत्रकार और भाष्यकार के सम्प्रदायभेद का एक बहुत बड़ा प्रमाण है। १.३. सूत्र में सवस्त्रमुक्तिनिषेध
भाष्यकार ने तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (९/५,७,२४) में मुनि को पात्र-चीवर-धारीरूप में वर्णित किया है, जिसका तात्पर्य यह है कि वे सवस्त्रमुक्ति मानते हैं। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न्य आदि परीषहों के सहन को संवर-निर्जरा का हेतु कहा जाना सवस्त्रमुक्ति-निषेध का प्रबल प्रमाण है, क्योंकि वस्त्रधारण करने पर इन परीषहों का होना सम्भव नहीं है, इसलिए सवस्त्र अवस्था में शीतादिपरीषहजय-निमित्तक संवर-निर्जरा भी संभव नहीं है। नग्न को ही शीतादिपरीषह संभव होते हैं, वस्त्रधारी को नहीं, इसका सप्रमाण प्रतिपादन विभिन्न शीर्षकों से नीचे किया जा रहा है
१.३.१. नग्न रहने पर ही शीतादिपरीषह संभव-डॉ० सागरमल जी ने शीतोष्णदंशमशकनाग्न्यादि-परीषह-सहन की श्वेताम्बरमत से संगति बैठाने के लिए कहा है कि सचेल को भी शीतादिपरीषह होते हैं। वे माननीय डॉ० दरबारीलाल जी कोठिया के तर्क पर आक्षेप करते हुए कहते हैं-"क्या दंशमशकपरीषह दिगम्बरमुनि को ही होता था और मात्र लोकलज्जा के लिए अल्पवस्त्र रखनेवाले प्राचीनकाल के श्वेताम्बर मुनियों को नहीं होता था? क्या स्वयं पण्डित जी को या किसी गृहस्थ को यह कष्ट नहीं होता है? कम या अधिक का प्रश्न हो सकता है, किन्तु यह परीषह तो सभी को होता है?" (जै.ध.या.स. / पृ. ३४८)।
इस विषय में मेरा निवेदन है कि तत्त्वार्थसूत्र के परीषहसूचक सूत्र (९/९) में उल्लिखित नाग्न्य शब्द स्पष्ट कर देता है कि वहाँ नग्न रहने पर चरम तीक्ष्णता से होने वाले शीतोष्ण आदि परीषहों से अभिप्राय है, सवस्त्र अवस्था में होनेवाले किञ्चिन्मात्र परीषहों से नहीं। मात्र कोपीनधारण कर लेने से भी परीषहों की व्यापकता और तीक्ष्णता में नग्न शरीर की अपेक्षा कमी तो हो ही जाती है, जो सूत्रकार को स्वीकार्य नहीं है। इसीलिए उन्होंने नाग्न्य परीषह के साथ शीतोष्णादि-परीषहों का वर्णन किया है। स्वयं प्राचीन श्वेताम्बर-आगम आचारांग में कहा गया है कि अचेल रहने पर ही परीषह संभव हैं
“अदुवा तत्थ पराक्कमंतं भुजो अचेलं तणफासा फुसंति, सीयफासा फुसंति, तेउफासा फुसंति, दंसमसगफासा फुसंति, एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ, अचेले लाघवियं आगममाणे जाव समभिजाणिया।" (आचा.१/७/७/२२१/ पृ. २६०)।
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