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२६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० १६ / प्र० १
अनुवाद - " जो भिक्खु वस्त्ररहित होकर संयम के मार्ग में स्थित है, उसके मन में विचार आता है कि मैं तृणस्पर्शजनित वेदना को सह सकता हूँ, शीत की वेदना को सह सकता हूँ, उष्णता की पीड़ा सहन कर सकता हूँ, डाँस-मच्छर के काटने की पीड़ा बर्दाश्त कर सकता हूँ तथा और भी अनेक दुःख सह सकता हूँ किन्तु लज्जा के कारण गुह्यप्रदेश के आच्छादन का त्याग करने में असमर्थ हूँ, उसे कटिवस्त्र (चोलपट्टक) धारण करना चाहिए।"
इसकी समीक्षा करते हुए मुनि श्रीसौभाग्यमल जी लिखते हैं- " इन सब (शीतादि परीषहों) से अधिक महत्त्वपूर्ण बात लज्जापरीषह को जीतने की है। लज्जा को जीत लेना बहुत कठिन है। शारीरिक कष्टों और वेदनाओं को सहन करने में जिस सामर्थ्य की आवश्यकता होती है, उससे लज्जा - परीषह को जीतने में कहीं अधिक सामर्थ्य की आवश्यकता होती है । जो साधक लज्जालु स्वभाववाला है, अतः वह गुह्यप्रदेश के आच्छादन का त्याग करने में समर्थ नहीं है, तो उसे कटिबन्ध धारण करना कल्पता है । --- टीकाकार (शीलांक) कटिबन्ध का परिमाण बतलाते हैं कि वह एक हाथ, चार अंगुल विस्तारवाला और दीर्घता में कमर के प्रमाण का होना चाहिए । '
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इस प्रकार कटिबन्ध धारण कर लेने से भिक्खु इतने कठिन नाग्न्यपरीषंह से बच जाता है। अर्थात् सवस्त्र को नाग्न्यपरीषह नहीं होता । अतः तत्त्वार्थसूत्र में नाग्न्यपरीषहजय को निर्जरा का कारण कहा जाना इस बात का सूचक है कि तत्त्वार्थसूत्रकार नग्नमुद्राधारक को ही साधु मानते हैं, जबकि भाष्यकार ने वस्त्रपात्र को साधु के लिए धर्मसाधन कहकर सवस्त्रमुक्ति का प्रतिपादन किया है। यह इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है कि सूत्रकार और भाष्यकार के सम्प्रदाय भिन्न-भिन्न हैं ।
१.३.४. अर्धफालकधारी को नाग्न्यशीतादि - परीषह संभव नहीं— मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई में प्राप्त द्वितीय शताब्दी ई० के एक शिलापट्ट पर जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों के नीचे एक नग्न साधु की मूर्ति उत्कीर्ण है। उसके दाहिने हाथ में कम्बल और बाएँ हाथ में प्रतिलेखन है। इसके आधार पर डॉ० सागरमल जी लिखते हैं- " ई० सन् की दूसरी शती तक श्वेताम्बरों के पूर्वाचार्य वस्त्र या कम्बल रखते हुए भी प्रायः नग्न ही रहते थे, जो उनके मथुरा के अंकनों से सिद्ध है।" (जै.ध.या.स./ पृ.३४५-४६)। इस तरह डॉक्टर सा० ने नाग्न्यपरीषह को श्वेताम्बर साधुओं पर घटाने का प्रयत्न किया है।
यह तथ्यसंगत नहीं है, क्योंकि शिलापट्ट पर उत्कीर्ण साधु दायें हाथ में सामने लटकाये हुए कम्बल से अपने गुह्यप्रदेश को छिपाये हुए है। यह लज्जा - परीषह या २७. वही / पृ. ५६० ।
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