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अ०१६/प्र०१
तत्त्वार्थसूत्र / २६१ ।२, ३)। भाष्यकार के मत में कुलिंगी के समस्त शुभाशुभकर्मों का संवर और निर्जरा तो कुलिंग से ही हो जाती है। अब जिनोपदिष्ट मोक्षमार्ग और कुलिंगरूप मोक्षमार्ग में अन्तर क्या रहा? दोनों एक ही स्तर के सिद्ध होते हैं। ऐसा होने पर या तो कुलिंग स्वलिंग के समान पूज्य हो जाता है अथवा स्वलिंग भी कुलिंग के समान अपूज्य बन जाता है। इस तरह भाष्यकार सर्वज्ञ-वीतराग-तीर्थंकरों के द्वारा उपदिष्ट मोक्षमार्ग को कुलिंगियों द्वारा प्रतिपादित मोक्षमार्ग के बराबर का दर्जा देकर केवली और श्रुत का अवर्णवाद कर देते हैं। यहाँ हम देखते हैं कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने केवल सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र को ही मोक्षमार्ग प्रतिपादित किया है, किन्तु भाष्यकार मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्र (कुलिंग) को भी मोक्षमार्ग प्रतिपादित करते हैं। सूत्रकार की दृष्टि से स्वलिंग (नाग्न्यलिंग) ही मोक्ष का साधन है, भाष्यकार की दृष्टि से कुलिंग से भी मोक्ष होता है। सूत्रकार के अनुसार सुलिंग (नाग्न्यलिंग) से ही भावलिंग की प्राप्ति होती है, भाष्यकार के अनुसार सुलिंग-कुलिंग के बिना भी भावलिंग प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार, तत्त्वार्थसूत्रकार व्यवस्थावादी हैं, जब कि भाष्यकार अव्यवस्थावादी। सूत्रकार का कारणकार्यसम्बन्ध अव्यभिचरित है, भाष्यकार का कारणकार्यसम्बन्ध व्यभिचरित है। इस तरह दोनों में आकाशपातालवत् सम्प्रदायभेद है। १.२. सूत्र में गृहिलिंगि-मुक्तिनिषेध
भाष्यकार ने गृहिलिंगी (गृहस्थ) को भी भावलिंग की प्राप्ति द्वारा मोक्ष का अधिकारी बतलाया है।९ किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में गृहिलिंग से वीतरागता या कषायमुक्तिरूप भावलिंग की प्राप्ति का निषेध किया गया है। उसमें स्पष्ट कहा गया है कि कर्मों की संवर-निर्जरा सम्यग्दर्शन-पूर्वक गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र, तप, धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान के प्रयोग से होती है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इन उपायों के द्वारा ही वीतरागभावरूप भावलिंग की प्राप्ति होती है। इन उपायों का आधारभूत उपाय है नाग्न्यलिंग। तत्त्वार्थसूत्रकार ने परीषहसूत्रों में निरूपित किया है कि सम्यग्दर्शनादिरूप मोक्षमार्ग से च्युत न होने के लिए और कर्मों की निर्जरा के लिए नाग्न्यपरीषह तथा नाग्न्य पर आश्रित शीतोष्णदंशमशकादि परीषह एवं अन्य परीषह समभावपूर्वक सहना चाहिए। (त. /सू.९/८-९) नाग्न्यपरीषह का अर्थ है चारित्रमोहनीय कर्म की पुंवेदनामक प्रकृति के तीव्रोदय से पुरुषेन्द्रिय में विकारोत्पत्ति द्वारा नग्नता को दूषित करनेवाले और लोगों के बीच लज्जास्पद स्थिति पैदा करनेवाले कामभाव का उद्दीप्त होना। तथा वैराग्यभावना द्वारा उसे उद्दीप्त न होने देना नाग्न्यपरीषहजय है। (त.रा.वा./९/९/१०) तथा नग्नता को देखकर मिथ्यादृष्टि जो अपवाद करते हैं,
१९. देखिए, पादटिप्पणी ६।
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