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२६० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६/प्र०१ तत्त्वार्थसूत्रकार ने 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः१६ सूत्र द्वारा भी कुलिंगी या अन्यलिंगी में भावलिंग की उत्पत्ति का निषेध किया है। इस सूत्र में कहा गया है कि जिसे जिनोपदिष्ट श्रुत के ग्यारह अंगों और चौदह पूर्वो का ज्ञान होता है, उसी को आदि के दो शुक्लध्यान हो सकते हैं, जो कर्मों के संवर और निर्जरा के महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य हेतु हैं। कुलिंगी मिथ्यादृष्टि होता है। उसे जिनोपदिष्ट श्रुत में श्रद्धा नहीं होती, अतः वह उसके अभ्यास में भी प्रवृत्त नहीं होता। फलस्वरूप उसमें उक्त दो शुक्लध्यानों की योग्यता नहीं आ सकती, जो केवलज्ञानोत्पत्ति के हेतुभूत भावलिंग हैं।
श्वेताम्बराचार्यों की मान्यता है कि स्वलिंग से केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है, कुलिंग से नहीं। किन्तु कुलिंगी को भावलिंग से केवलज्ञान की प्राप्ति हो सकती है।
और भाष्यकार का कथन है कि स्वलिंगी, अन्यलिंगी (कुलिंगी) और गृहिलिंगी तीनों भावलिंग के प्राप्त होने पर ही सिद्ध होते हैं। १८ अब यहाँ बहुत बड़ा अन्तर्विरोध दर्शनीय है। स्वलिंग से केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है और भावलिंग की प्राप्ति के बिना केवलज्ञान होता नहीं है। इसका अभिप्राय यह है कि स्वलिंग से भावलिंग होता है और भावलिंग से केवलज्ञान। और कुलिंग से केवलज्ञान की उत्पत्ति होती नहीं है तथा कुलिंगी स्वलिंग ग्रहण करता नहीं है। फिर भी उसे भावलिंग प्राप्त हो जाता है। इसका तात्पर्यार्थ यह है कि कुलिंगी को या तो कुलिंग से ही भावलिंग की प्राप्ति होती है या स्वलिंग के बिना ही भावलिंग प्रकट हो जाता है। प्रथम पक्ष को मान्यता दी जाय तो यह कथन असत्य हो जाता है कि कुलिंग केवलज्ञान का हेतु नहीं है, क्योंकि कुलिंग से भावलिंग होता है और भावलिंग से केवलज्ञान, इस प्रकार कुलिंग केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण सिद्ध हो जाता है, ठीक स्वलिंग के समान। यदि दूसरे पक्ष को मानें तो कारण के बिना ही कार्य की सिद्धि का प्रसंग आता है। इस पक्ष में तो कलिंगी स्वलिंगी से श्रेष्ठ हो जाता है, क्योंकि वह मिथ्यादष्टि और अमहाव्रती रहते हुए भी भावलिंग और मोक्ष प्राप्त कर लेता है। और इससे तत्त्वार्थसूत्रकार का यह उपदेश असत्य सिद्ध हो जाता है कि 'मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग बन्ध के हेतु हैं' (त.सू.८/१) 'प्राणातिपात आदि अशुभ योग से पापकर्म का बन्ध होता है' (त.सू./श्वे./६/४), 'बहु-आरंभ और बहु-परिग्रह नरकायु के बन्ध के कारण हैं' (त.सू./श्वे./६/१६), 'स्वयं का या दूसरे का वध करना असातावेदनीय के आस्रव का हेतु है, (त.सू./श्वे./६/१२), तथा 'गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र, तप एवं ध्यान, ये संवर और निर्जरा के उपाय हैं।' (त.सू./९ १६. तत्त्वार्थसूत्र / दि. ९ / ३७, श्वे. ९/३९ । १७. देखिए, पादटिप्पणी १०।। १८. देखिए , पादटिप्पणी ६। ।
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