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२६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६ / प्र०१ अनुवाद-"अथवा वस्त्ररहित होकर विचरण करनेवाले साधु को तृणस्पर्शपरीषह पीड़ित करता है, शीतपरीषह त्रास देता है, उष्णपरीषह सन्तप्त करता है, डाँस-मच्छर पीड़ा पहुँचाते हैं और एक या अनेक अनुकूल-प्रतिकूल परीषह आते हैं, उन्हें वह भलीभाँति सहन करता है। वह अचेल साधक उपकरणों और कर्मों के भार से हल्का हो जाता है। ऐसा जानकर समभाव रखे।"
१.३.२. श्वेताम्बरागमों में परीषहत्राणार्थ ही वस्त्रधारण की अनुमति-आचारांग के वस्त्रैषणा अध्ययन में कहा गया है कि जो लज्जाशील हो वह एकवस्त्र और प्रतिलेखना धारण करे। देश-विशेष में दो वस्त्र और प्रतिलेखना धारण करे तथा जो परीषह सहने में असमर्थ हो वह तीन वस्त्र और प्रतिलेखना धारण करे
"एसे हिरिमणे सेगं वत्थं वा धारेज पडिलेहणगं विदियं। तत्थ एसे जुग्नि देसे दुवे वत्थाणि धारिज पडिलेहणगं तदियं। तत्थ एसे परिस्सहं अणधिहासएस (अणहिवासए) तओ वत्थाणि धारेज पडिलेहणं चउत्थं।" २१..
वस्तुतः श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के संस्थापक मुनियों में वस्त्रधारण की शुरुआत ही शीतोष्णदंश-मशकनाग्न्य आदि परीषहों से बचने के लिए हुई थी। स्थानांगसूत्र में कहा गया है कि तीन प्रयोजनों से वस्त्र धारण किये जा सकते हैं-१.शारीरिक कामविकार छिपाने के लिए, २.जननेन्द्रिय की बीभत्सता छिपाने के लिए और ३.परीषहों से बचने के लिए। यथा-"तिहिं ठाणेहिं वत्थं धारेजा। तं जहा-हिरिपत्तियं, दुगुंछापत्तियं, परीसहपत्तियं।" (स्था. सू. ३/३/३४७/१५०)।
आचारांगचूर्णिकार वस्त्रैषणा अधिकार की उत्थानिका में कहते हैं-"भाववत्थसंरक्षणार्थं दव्ववत्थेसणाहिकारो,सीतदंसमसगादीणं च परित्राणार्थम्।" (आचारांगसूत्र । श्रुतस्कन्ध २/अध्याय ५/उद्देशक १/ सम्पा.-पं. बसन्तीलाल नलवाया / प्रका.-धर्मदास जैन मित्रमण्डल, रतलाम / १९८२ ई. / पृ.३४३ से उद्धृत)।
अनुवाद-"भाववस्त्र (अठारह हजार शीलांगरूप संयम) की रक्षा के लिए तथा शीत, दंशमशक आदि से परित्राण के लिए यह द्रव्यवस्त्र का अधिकार (प्रकरण)
जिनभद्रगणी ने तो विशेषावश्यकभाष्य में बहुत मुखर होकर कहा है कि तुम यह जानना चाहते हो कि वस्त्र संयम का कौन-सा उपकार करते हैं? तो सुनो, वे शीत आदि की पीड़ा से बचाते हैं और नग्न रहने पर अग्नि जलाकर ठंड से बचने
गाथा (४२३) की विजयोदयाटीका प्र.३२४
२१. भगवती-आराधना की 'आचेलक्कुद्देसिय'
से उद्धृत।
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