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२५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६ / प्र०१ १.१. सूत्र में अन्यलिंगि-मुक्ति-निषेध
अन्यलिंग को परतीर्थ भी कहते हैं। परतीर्थ का अर्थ है अन्यमत में प्रतिपादित मोक्षमार्ग। अर्थात् अन्यमतानुसारी आचार-विचार, कर्मकाण्ड, बाह्यवेश और बाह्य उपकरणों का अवलम्बन अन्यलिंग या परतीर्थ कहलाता है। भाष्यकार उमास्वाति ने इससे भी मोक्ष की प्राप्ति मानी है। सिर्फ एक शर्त लगाई है कि अन्यलिंगी के पास भावलिंग होना चाहिए। भावलिंग का अर्थ है समभाव, वीतरागभाव या कषायमुक्ति। अथवा श्रुतज्ञान, क्षायिक सम्यक्त्व और चारित्र को भावलिंग कहते हैं। इसकी पुष्टि श्वेताम्बराचार्यों की निम्नलिखित उक्तियों से भी होती है
सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य अहव अन्नो वा।
समभावभाविअप्पा लहेय मुक्खं न संदेहो॥ अनुवाद-"मनुष्य चाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य किसी सम्प्रदाय का, यदि समभाव से युक्त है, तो मोक्ष अवश्य प्राप्त करेगा। इसमें सन्देह नहीं है।"
नासाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे न तर्कवादे न च तत्त्ववादे।
न पक्षसेवाश्रयणेन मुक्तिः कषायमुक्तिः किलमुक्तिरेव॥ अनुवाद-"मुक्ति न तो दिगम्बर रहने से होती है, न सफेद वस्त्र पहनने से। तार्किक वाद-विवाद और तत्त्वचर्चा से भी मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। किसी सिद्धान्तविशेष में आस्था रखने से या व्यक्तिविशेष की सेवा करने से भी मुक्ति असम्भव है। मुक्ति तो वस्तुतः कषाय से मुक्त होने पर ही संभव है।"
इस पर प्रकाश डालते हुए डॉ० सागरमलजी लिखते हैं-"यह स्पष्ट है कि उत्तराध्ययन-सूत्र जैसे प्राचीन जैन आगमों में स्त्रीमुक्ति के साथ-साथ अन्यतैर्थिकों (अन्यलिंगियों) और गृहस्थों की मुक्ति को भी स्वीकार किया गया है। उनकी मान्यता यह थी कि व्यक्ति चाहे किसी अन्य परम्परा में भी दीक्षित हुआ हो या गृहस्थ ही हो, यदि वह समभाव की साधना में पूर्णता प्राप्त कर लेता है, रागद्वेष से ऊपर उठकर वीतरागदशा को प्राप्त हो जाता है, तो वह अन्यतैर्थिक या गृहस्थ के वेश में भी मुक्ति को प्राप्त हो सकता है। उत्तराध्ययनसूत्र में शरीर की अपेक्षा से स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक की तथा वेश की अपेक्षा से स्वलिंग (निर्ग्रन्थ मुनिवेश), अन्यलिंग (तापस आदि
७. "भावलिङ्गं श्रुतज्ञानक्षायिकसम्यक्त्वचरणानि।" सिद्धसेनगणी : तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति १०/७/ पृ. ३०८ । ८. आचार्य रत्नशेखरसूरि : 'सम्बोधसत्तरी-२ (डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ/पृ. ३६२)। ९. हरिभद्रसूरि : 'उपदेशतरंगिणी' (डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ/ पृष्ठ. ३६२)।
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