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२४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१५ / प्र० २
४. श्वेताम्बरपरम्परा में जो 'आवश्यकनिर्युक्ति' नामक ग्रन्थ है, उसके रचयिता भद्रबाहु - द्वितीय का काल विक्रम सं. ५६२ ( ई० सन् ५०५) है, ५२ जबकि मूलाचार का रचनाकाल प्रथम शताब्दी ई० है ।५३ इसलिए न तो भद्रबाहु - द्वितीयकृत 'आवश्यकनिर्युक्ति' का नाम मूलाचार में आना संभव है, न ही उसकी गाथाओं का ।
ये चार हेतु इस बात के प्रमाण हैं कि 'मूलाचार' की आराहणणिज्जत्ती (२७९) गाथा में श्वेताम्बर ग्रन्थों का उल्लेख नहीं है, अपितु दिगम्बरग्रन्थों का ही निर्देश किया गया है। अतः उसमें श्वेताम्बरग्रन्थों का उल्लेख होने की धारणा असत्य है । इसलिए मूलाचार को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जो यह हेतु बतलाया गया है कि उसमें 'आराधनानिर्युक्ति' आदि श्वेताम्बर - ग्रन्थों का उल्लेख है, वह असत्य है । अतः सिद्ध है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु शतप्रतिशत दिगम्बरग्रन्थ है।
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'मूलाचार' की रचना का आधार 'आवश्यकनिर्युक्ति' नहीं
यापनीयपक्ष
प्रेमी जी- " आवश्यकनिर्युक्ति की लगभग ८० गाथायें मूलाचार में मिलती हैं और मूलाचार में प्रत्येक आवश्यक का कथन करते समय वट्टकेरि का यह कहना कि मैं प्रस्तुत आवश्यक पर समास से - संक्षेप से -निर्युक्ति कहूँगा, अवश्य ही अर्थसूचक है । क्योंकि सम्पूर्ण मूलाचार में षडावश्यक अधिकार को छोड़कर अन्य प्रकरणों में 'निर्युक्ति' शब्द शायद ही कहीं आया हो। षडावश्यक के अन्त में भी इस अध्याय को 'निर्युक्ति' नाम से ही निर्दिष्ट किया गया है।" (जै.सा.इ. / द्वि.सं./ पृ.५५१-५५२)।
प्रेमी जी यह कहना चाहते हैं कि आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार की रचना श्वेताम्बरग्रन्थ आवश्यकनिर्युक्ति के आधार पर की है।
दिगम्बरपक्ष
यह कथन भी उपर्युक्त चार प्रमाणों से असत्य सिद्ध हो जाता है। मूलाचार की रचना भद्रबाहु - द्वितीय-कृत आवश्यकनिर्युक्ति के आधार पर होना असम्भव है । इसे सिद्ध करने के लिए उक्त चार प्रमाणों में से केवल इस प्रमाण का पुनरुल्लेख पर्याप्त है कि मूलाचार की रचना भद्रबाहु - द्वितीय के जन्म से चार सौ वर्ष पूर्व हो
५२. जैन आगम सहित्य : मनन और मीमांसा / पृ. ४३८ ।
५३. देखिए, दशम अध्याय / प्रथम प्रकरण / 'भगवती - आराधना का रचनाकाल ।'
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