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अ० १५ / प्र०२
मूलाचार / २४३ इसका स्पष्टीकरण टीकाकार वसुनन्दी ने इस प्रकार किया है-"युक्तिरिति उपाय इति चैकार्थः। निरवयवा सम्पूर्णाऽखण्डिता भवति नियुक्तिः। आवश्यकानां नियुक्तिरावश्यक-नियुक्तिरावश्यकसम्पूर्णोपायः। अहोरात्रमध्ये साधूनां यदाचरणं तस्यावबोधकं पृथक्-पृथक् स्तुतिस्वरूपेण 'जयति भगवानित्यादि' प्रतिपादकं यत्पूर्वापराविरुद्धं शास्त्रं न्याय आवश्यक-नियुक्तिरित्युच्यते।" (आचारवृत्ति / मूला./ गा.५१५)।
___ अनुवाद-"युक्ति और उपाय एकार्थक हैं और निरवयव अर्थात् सम्पूर्ण या अखण्डित युक्ति नियुक्ति है। आवश्यकों की नियुक्ति आवश्यकनियुक्ति है, जिसका अर्थ है आवश्यकों का सम्पूर्ण उपाय। अहोरात्र के मध्य साधुओं का जो आचरण होता है, उसे बतानेवाला, पृथक्-पृथक् 'जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचारविजृम्भिता' (चैत्यभक्ति १) इत्यादि स्तुतिरूप से प्रतिपादक पूर्वापर अविरुद्ध जो शास्त्र अर्थात् न्याय है, उसे आवश्यकनियुक्ति कहते हैं।
इस प्रकार मूलाचार के अनुसार 'नियुक्ति' का अर्थ है 'सम्पूर्ण उपाय' या 'शास्त्र', जैसे "आवासयणिज्जुत्ती वोच्छामि" (मूला. / पू./ गा.५०३), इसका अर्थ है "षडावश्यकों के प्रतिपादक शास्त्र का वर्णन करूँगा।" तथा "सामाइयणिज्जुत्ती वोच्छामि" (मूला. / पू. / गा.५१७) का अर्थ है-“सामायिक नाम के मोक्षोपाय का वर्णन करूँगा।"
- इन वचनों से स्पष्ट हो जाता है कि श्वेताम्बरसाहित्य में 'नियुक्ति' शब्द 'पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या' का वाचक है, जबकि मूलाचार में 'उपाय' या 'शास्त्र' का।
इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि मूलाचार में किसी ग्रन्थ की नियुक्ति करने की प्रतिज्ञा नहीं की गयी है, अपितु आवश्यक, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि विषयों की नियुक्ति का वर्णन करने की प्रतिज्ञा की गयी है और उसके बाद इन विषयों के स्वरूप का वर्णन किया गया है। इससे स्पष्ट है कि मूलाचार में वर्णित नियुक्तियाँ किन्हीं ग्रन्थों की टीकाएँ नहीं हैं, बल्कि विभिन्न विषयों का मूलरूप से वर्णन हैं। इसलिए मूलाचार-वर्णित आवश्यकनियुक्ति आदि ग्रन्थ श्वेताम्बरग्रन्थों से भिन्न
आराधनानियुक्ति यह एक ही शास्त्र का नाम है। डॉ० सागरमल जी ने आराधना और नियुक्ति इस तरह विग्रह कर दो शास्त्रों का उल्लेख मान लिया है, जो असंगत है। यह निम्नलिखित व्याख्या से स्पष्ट है-"आराधना सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपसामुद्योतनोद्यवननिर्वाहणसाधनादीनि तस्या नियुक्तिराराधनानियुक्तिः।" (आचारवृत्ति/मूला. / पू./गा. २७९)। अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के उद्योतन, उद्यवन, निर्वाहण, साधन आदि का नाम आराधना है। उसका प्ररूपक शास्त्र आराधनानियुक्ति है।
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