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२४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१५ / प्र० २
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रेमी जी और उनके अनुगामी विद्वानों ने दिगम्बरग्रन्थ मूलाचार को यापनीय ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जितने भी हेतु प्रस्तुत किये हैं वे सब असत्य हैं। अतः सिद्ध है कि मूलाचार यापनीयपरम्परा का नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है।
उपसंहार
दिगम्बरकृति होने के प्रमाण सूत्ररूप में
अब उन समस्त प्रमाणों को सूत्ररूप में उपसंहृत किया जा रहा है, जिनसे यह सिद्ध होता है कि मूलाचार न तो यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है, न श्वेताम्बरपरम्परा का, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। वे इस प्रकार हैं—
१. जिस समय मूलाचार की रचना हुई थी, उस समय यापनीय - सम्प्रदाय का जन्म ही नहीं हुआ था ।
२. मूलाचार में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यलिंगी - मुक्ति का निषेध किया गया है, जब कि ये यापनीयपरम्परा के आधारभूत सिद्धान्त हैं।
३. मूलाचार में मुनि के २८ मूलगुणों और अनेक उत्तरगुणों का विधान है। यापनीयमत में ये दोनों प्रकार के गुण मान्य नहीं हैं।
४. मूलाचार में समस्त बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह को 'परिग्रह' कहा गया है। यापनीयमत स्थविरकल्पियों (सवस्त्रमुनियों), स्त्रियों, गृहस्थों और अन्यलिंगियों की मुक्ति मानने से न बाह्यपरिग्रह को परिग्रह मानता है, न आभ्यन्तर परिग्रह को ।
५. मूलाचार में माना गया है कि मोक्षमार्गरूप रत्नत्रय का विकास गुणस्थानक्रम से होता है और पूर्णता चौदहवें गुणस्थान में होती है । यापनीयपरम्परा ऐसा नहीं मानती, क्योंकि उसमें मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में स्थित अन्यलिंगी साधु भी मुक्ति का पात्र माना गया है ।
६. मूलाचार में कल्प नामक स्वर्गों की संख्या १६ बतलायी गयी है, और नौ अनुदिश नामक स्वर्ग भी माने गये हैं, जब कि यापनीयमत के अनुसार कल्प बारह हैं और अनुदिश नामक स्वर्गों का अस्तित्व नहीं है।
७. मूलाचार में वेदत्रय को स्वीकार किया गया है, जो यापनीयों को स्वीकार्य नहीं है।
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