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अ० १५ / प्र० २
मूलाचार / २४१ को दिगम्बरमान्य उत्तरगुणों का अंग बतलाया गया है। श्वेताम्बरपरम्परा में यह उत्तरगुणों में परिगणित नहीं है। मूलाचार के कर्त्ता ने अस्वाध्यायकाल में इसी (मूलाचारवर्णित ) आवश्यकनिर्युक्ति को पढ़ने की सलाह दी है, न कि श्वेताम्बरीय आवश्यक निर्युक्ति को पढ़ने की । प्रत्याख्याननियुक्ति के नाम से प्रत्याख्यानग्रन्थ का वर्णन भी मूलाचार में किया गया है तथा भगवती आराधना के रूप में 'आराधनानिर्युक्ति' दिगम्बरसाहित्य में उपलब्ध है। सत्रह प्रकार के मरणों का निरूपण भी भगवती - आराधना में है। यही मरणविभक्ति नामक ग्रन्थ है । पञ्चसंग्रह आदि संग्रहग्रन्थ हैं । देवागम स्तोत्र, पञ्चपरमेष्ठी-स्तोत्र आदि का नाम स्तुतिग्रन्थ है तथा त्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित तथा द्वादशानुप्रेक्षा आदि को धर्मकथा - ग्रन्थ कहते हैं। मूलाचार के टीकाकार आचार्य वसुनन्दी ने यह स्पष्टीकरण निम्नलिखित शब्दों में किया है—
'आराधना सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपसामुद्योतनोद्यवन-निर्वाहणसाधनादीनि तस्या निर्युक्तिराराधना- निर्युक्तिः । मरणविभक्तिः सप्तदश-मरण- प्रतिपादक-ग्रन्थरचना । संग्रहः पञ्चसङ्ग्रहादयः । स्तुतयः देवागम - परमेष्ठ्यादयः । प्रत्याख्यानं त्रिविधचतुर्विधाहारादि-परित्याग - प्रतिपादनो ग्रन्थः । सावद्य - द्रव्यक्षेत्रादि- परिहार - प्रतिपादनो वा । आवश्यकाः सामायिक- चतुर्विंशतिस्तववन्दनादि-स्वरूप - प्रतिपादको ग्रन्थः । धर्मकथास्त्रिषष्टि- शलाकापुरुषचरितानि द्वादशानुप्रेक्षादयश्च । ईदृग्भूतोऽन्योऽपि ग्रन्थः पठितुमस्वाध्यायेऽपि च युक्तः । " ( आचारवृत्ति / मूला./गा. २७९)।
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ये सभी ग्रन्थ दिगम्बर - परम्परा में उपलब्ध हैं, अतः इन्हें श्वेताम्बर - ग्रन्थ मानने का कोई कारण नहीं हैं ।
३. श्वेताम्बरीय निर्युक्ति-ग्रन्थ मूलग्रन्थ नहीं हैं, अपितु मूलग्रन्थ पर लिखे हुए पद्यबद्ध टीकाग्रन्थ हैं।४८ जैसे आवश्यकनिर्युक्ति 'आवश्यकसूत्र' पर लिखी गयी टीका है। ४९ किन्तु मूलाचार की उपर्युक्त २७९वीं गाथा में वर्णित ग्रन्थ मूलग्रन्थ हैं, टीकाग्रन्थ नहीं। श्वेताम्बर-साहित्य और दिगम्बर - साहित्य में निर्युक्ति शब्द के बिलकुल भिन्न - भिन्न अर्थ हैं।
श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री श्वेताम्बर - साहित्यगत निर्युक्ति की परिभाषा पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं
पडिलिहियअंजलिकरो उवजुत्तो उट्ठिऊण एयमणो ।
अव्वाखित्तो वुत्तो करेदि सामाइयं भिक्खू ॥ ५३८ ॥ मूलाचार / पूर्वार्ध । ख–“प्रतिलेखनेन सहिताञ्जलिकरो वा सामायिकं करोतीति ।" आचारवृत्ति / मूला./गा. ५३८ । ४७. मूलाचार / पूर्वार्ध / गा. ६३७-६३८ ।
४८. जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा / पृ. ४३५ ।
४९. वही / पृ. ४३८ ।
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