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अ०१५ / प्र०२
मूलाचार / २४५ चुकी थी, अतः मूलाचार को आवश्यकनियुक्ति पर आधारित बतलानेवाला यह हेतु भी असत्य है, इससे सिद्ध है कि मूलाचार यापनीयग्रन्थ नहीं है।
कुन्दकुन्द की ही परम्परा का ग्रन्थ
यापनीयपक्ष
प्रेमी जी-"यह ग्रन्थ (मूलाचार) कुन्दकुन्द का तो नहीं ही है, उनकी विचारपरम्परा का भी नहीं है।" (जै. सा. इ. / द्वि. सं./पृ.५५०)। दिगम्बरपक्ष
'प्रेमी' जी का यह कथन प्रमाणों की उपेक्षा का परिणाम है। यद्यपि यह कुन्दकुन्द का तो नहीं है, तथापि कुन्दकुन्द की परम्परा का अवश्य है। इसे मैं पुनः इन शब्दों में दुहराना चाहूँगा कि यह कुन्दकुन्द की ही परम्परा का ग्रन्थ है। इस गन्थ पर कुन्दकुन्द की इतनी गहरी छाप है कि विद्वानों ने इसे उनके ही द्वारा रचित समझ लिया था। निम्नलिखित प्रमाण इसे कुन्दकुन्द की ही परम्परा का सिद्ध करते हैं
. १. कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में सवस्त्रपुरुषमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यतीर्थिकमुक्ति का घोर विरोध किया है। इन चारों की मुक्ति का विरोध मूलाचार में भी किया गया है।
२. कुन्दकुन्द ने मुनि के जिन २८ मूलगुणों का उल्लेख किया है, उनका मूलाचार में भी ज्यों का त्यों वर्णन मिलता है।
३. कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की अनेक गाथाएँ मूलाचार में मिलती हैं, यथाबारसअणुवेक्खा की ८, नियमसार की १६, पञ्चास्तिकाय की २, समयसार की ३, बोधपाहुड की २, लिंगपाहुड की १, चारित्तपाहुड की १, और दंसणपाहुड की १५४ यह इस बात का प्रमाण है कि मूलाचार के कर्ता आचार्य वट्टकेर कुन्दकुन्द के अनुगामी
थे।
४. कुन्दकुन्द की निरूपणशैली का प्रभाव भी मूलाचार के कर्ता पर दृष्टिगोचर होता है। यथा
५४. मूलाचार / पूर्वार्ध । भारतीय ज्ञानपीठ / आर्यिका श्री ज्ञानमती जीः आद्य उपोद्घात /
पृ. ३०-३२।
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